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________________ ४५६ भगवतीसूत्रे चष्ट ८, श्रोत्रेन्द्रियाद्याश्रतस्रः ४, सी पुरुषबध्यरूपे द्वे २, एवं चतुर्दश कर्मप्रकृती darata तात्पर्यार्थः । कियत्पर्यन्त मे केन्द्रियशतकमिहाध्येतव्यं तत्राह - 'जाव' इत्यादि । 'जाब अतरोववनगा वणस्सइकाइया' यावदनन्तरोपपक्षका वनस्पतिकायिकाः अष्कायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि अनन्तरोपपन्नकै केन्द्रिया इत्थमेव पञ्चविधाः मज्ञप्ताः इत्थमेव कर्मप्रकृती वैध्नन्ति वेदयन्ति चेति भावः । 'अनंतशेववन्नग एर्गिदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति' अनन्तरोपप " के न्द्रियाः खलु भदन्त ! कुतः कस्मात् स्थानविशेषादागत्योत्पद्यन्ते ? इत्युत्पादविषयकः प्रश्नः उत्तरमाह - 'जहेव ओहिओ उद्देसओ मणिओ तहेव' यथैव औधिक उद्देश्को भणितः अस्यैव चतुस्त्रिंशत्तमस्य शतकस्य प्रथमे एकेन्द्रियशते वन्ध होता है ऐसा कहा गया है । वेदन सूत्र में ये चौदह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ऐसा कहा गया है। वे चौदह प्रकृतियां इस प्रकार से हैं-ज्ञानावरणीयादिक ८ श्रोगेन्द्रियावरण ४ स्त्रीपुरुषावरणरूप दो २ । 'जाव अनंतशेववन्नगा वणस्सइकाइया' इसी प्रकार का कथन यावत् अनन्तरोपपन्नक वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये । अर्थात् 'अकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक सब अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव जो कि पांच प्रकार के कहे गये हैं इसी प्रकार से कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है और इसी प्रकार से वे उनका वेदन करते हैं । 'अनंत सेवचन्न एगिंदियाण भंते ! कभी उववज्जंति' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- ' जहेब ओहिओ उद्देसओ भणिओ तहेब' 'हे गौतम! जैमा सामान्य उद्देशक में कहा गया है वैसाही यहां पर भी વેદન કરે છે. એટલે કે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ ૮ શ્રેત્રેન્દ્રિયાવરણ ૪ તથા स्त्रीवेद्वावर १३ ५३षवेद्वावर १४ 'जाव अनंतशेववन्नगा वणस्स इकाइया' આજ પ્રમાણેનું કથન યાવત્ અનંતરે પપન્નક વનસ્પતિકાયિકના કથન સુધી સમજવું. અર્થાત્ અપૃકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધી સઘળા અનંતરે પપ નક એકેન્દ્રિય જીવા કે જે પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે, તે બધા એજ પ્રમાણે કમ પ્રકૃતિયાના ખંધ કરે છે. અને એજ પ્રમાણે તે તેનુ વેદન કરે છે. 'अण' तरोववन्नग एगिदियाणं भंते! कओ उववज्जति' हे भगवन् अनंतરાપન્નક એકેન્દ્રિય જીવા કર્યાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे - ' जहेव ओहिओ उद्देसओ भणिओं પ્રશ્નના શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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