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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श. १ सू०७ दक्षिणचरमान्ते उत्पातनि० ४१३ नस्थि' नवरं केवलम् एकसामयिको विग्रहो नास्ति न वक्तव्यः किन्तु द्वयादि सामयिक एवं विग्रहो वक्तव्य इति । 'उत्तरिल्ले समो६याणं दाहिणिल्ले उबवज्जमाणाणं जहा सहाणे' उत्तरे चरमान्ते समवहतानां दक्षिणे चरमान्ते समुत्पद्य मानानां यथा स्वस्थाने एकसामयिकादारभ्य चतुःसामयिको विग्रहो वक्तव्य इति । 'उत्तरिल्ले समोहयाणं पच्चत्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नस्थि से तहेव' उत्तरे लोकचरमान्ते समुत्पद्यमानाना मेकसामयिको विग्रहो न भवति, किन्तु द्वयादि सामयिक एव विग्रहो वर्णयितव्यः । शेषम् - प्राथमिक विग्रहव्यतिरिक्तं सर्वे पूर्ववदेव वर्णनीयम् । कियत्पर्यन्तं पूर्वप्रकरणमनुस्मरणीयम्, 'तत्राह - ' जाव' इत्यादि । 'जाव सुहुमत्रणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्स इसमयका विग्रह नहीं होता है । यही बात 'नवरं एगसमइओ विग्गहो नस्थि' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है । 'उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उबवज्जमाणाणं जहा सहाणे' उत्तर चरमान्त में समवहत हुए जीवों के दक्षिण चरमान्त में उपपात के सम्बन्ध में उनके स्वस्थान में उत्पाद होने के जैसा ही एकसमयवाला दो समयवाला तीनसमयवाला और चारसमयवाला विग्रह होता है ऐसा जानना चाहिये। 'उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चस्थिमिल्ले उबवज्जमाणाणं एग समइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव' लोकके उत्तर चरमान्त में समवहत हुए जीवों का पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में दो समघवाले विग्रह से लेकर चार समयवाला विग्रह होता है । यहां एकसमयवाला विग्रह नहीं होता है ऐसा जानना चाहिये । बाकी का और सब कथन पूर्वके जैसा ही है । 'जाब सुहुमवणस्तइकाइओ पज्जन्तओ सुहुमवणस्सइकाइएस पज्जन्तएस 'चेव' 'उत्तरिल्ले समोहयाण दाहिणिल्ले उबवज्जमाणाणं जहा सहाणे' उत्तर २માન્તમાં સમુદ્લાત કરેલ જીવેાના ઉપપાત દક્ષિણ ચરમાન્તમાં હોવાના સંબંધમાં તેને સ્વસ્થાનમાં ઉત્પાદ હાવાની જેમજ એક સમયવાળી, એ સમયવાળી, श्रयु समयवाणी मने यार सभयवाणी विग्रहगति होय छे. तेभ भ्रमण. 'उत्तरिमिल्ले समोहयाणं पच्चत्थिमिल्ले उववज्जमाणाण एगसमइओ विगहों नन्थि सेख तद्देव' सोना उत्तर यरभान्तमां समुद्द्धात रेस भवन उपयात पश्चिम ચરમાન્તમાં થવાના સંબંધમાં એ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી લઈને ચાર સમયવાળી વિગ્રહુ ગતિ હાય છે. અહિયાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ હાતી નથી. तेभ समन्वु, माडीनु जी सघ उथन पडोसा ह्या प्रभा ४ छे. 'जाब सुहुम वणरसइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणरसइकाइएस पज्जत्तएसु चेव' मा उथन यावत् શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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