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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०६ अ०सूक्ष्मपूथ्विकायिकोत्पत्तिः ४०१ 'जे भविए एगपयामि अणु सेढी उपज्जित्तए' यो भव्य एकमतरे अणुश्रेणिमाधित्य समुत्पत्तुम्, 'से णं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा' स खलु जीव खिसाममयिकेन विग्रहेण समुत्पद्येत, 'जे भविए विसेढी उक्वज्जित्तए से णं चउसमइएणं विगहेणं उबज्जेज्जा' यो भन्यो विश्रेणि-विश्रेणिमाश्रित्य विश्रेण्यामित्यर्थः, उत्पत्तुम्, स खलु चतुःसामयिकेन विग्रहेण गत्या समुत्पद्यत इति । ‘से तेणतुणे जाव उववज्जेज्जा' तत्तेनार्थेन गौतम ! एव मुच्यते एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन वा, त्रिसामयिकेन वा, चतुःसामयिकेन विग्रहेणोत्पद्यत इति । 'एवं अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइओ लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए' एवं पूर्वोक्त सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपचरंमि अणुसे दि उवज्जित्तए से अंतिसमइएणं विग्गहेणं उपवज्जेज्जा' जो जीव विधातो वका श्रेणि से गमन करता हुमा एक प्रतर में समणि से उत्पन्न होता है तो वह तीन समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है। और 'जे भविए विसेदी उववज्जित्तए से गं च उसमइएणं बिग्गहेणं उथवज्जेज्जा' जो विश्रेणि में उत्पन्न होने के योग्य है वह वहां चार समयवाले विग्रह से उत्पन्न होता है। 'से तेणटेणं जाव उववज्जेज्जा' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वह वहां एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है और चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है । 'एवं अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइओ लोगस्स पुरथिमिले चरिमंते समोहए' इसी पूर्वोक्त क्रम के अनुसार कोई अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में वकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंभि अणुसेढि उववज्जित्तए से ण तिसमहएण विग्गहेण उववज्जेज्जा' २१ द्विधाता है। श्रेथा गमन કરતે થકો એક સમયમાં સમ શ્રેણથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે તે ત્રણ સમય वालवातिया त्या त्पन्न थाय छे. अने, 'जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से ण च उसमइएण विग्गहेण उबवज्जेज्जा' २ विश्रेणीमा ५-- वाने योग्य छे, ते त्यां या२ समयाजी विग्रहगतिथी पन थाय छे. 'से तेणटेण' जाव उववज्जेज्जा' मा ४२थी गौतम ! में से ४९ छे -ते त्यां એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે એ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ‘एवं अपज्जत्त सुहमपुढवीकाइओ लोंगरस पुरथिमिले चरिमंते समोहए'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭