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________________ भगवतीसवे उत्तरयति - ' से' इत्यादिना 'सेनं तव जात्र से तेणट्टेणं' शेषं तथैव यथा अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोषपाताबसरे उत्तरे कथितं तथैत्र इहापि याबतसेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते, इत्यादि प्रकरणान्तं सर्वमपि उत्तरादिकं ज्ञातव्यम् । यावत् पदेन सम्पूर्णस्यापि उत्तरवाक्यस्य संग्रहो भवति । ३५२ 'दक्षिण चरमान्ते उपपातं वर्णयितुमाह- अपज्जत हुम' इत्यादि । 'अपज्जत मढवीकारणं भते ।' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणमा पुढबीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते समोहर' एतस्याः रत्नपमायाः पृथिव्याः पाश्चात्ये- पश्चिमे चरमान्ते समवहतः 'समोहणित्ता जे भविए' समय का अर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकका, एवं अपर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक का संग्रह हुआ है। इस प्रकार प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतम स्वामी से कहते हैं- 'सेसं तहेब जाव से तेणद्वेणं' हे गौतम! जैसा अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक के उपपात के अवसर में उत्तररूप में कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी 'यावत् हे गौतम! मैंने इस कारण से ऐसा कहा है' इस प्रकरण तक कह लेना चाहिये । यहां यावत् पद से सम्पूर्ण उत्तर वाक्य का संग्रह हुआ है । अव सूत्रकार पूर्व दक्षिण चरमान्त में उपपात का वर्णन करते हैं - इसमें गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'अपज्जत सुम पुढारणं भंते!' हे भदन्त ! कोई अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव 'इमी से रमाए पुढवीए पचत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' इस रत्नप्रमापृथिवी के पश्चिम चरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात से मरा 'समोहणित्ता जे भविए इमी से रयणपभाए पुढवीए पुरस्थिमिल्ले चरिमंते સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના ઉષપાતના સંબંધમાં ઉત્તર રૂપથી કથન કરેલ છે, તેજ રીતે આ પ્રકરણમાં પણ યાવત્ હે ગૌતમ! મેં આકારણથી એવુ' કહ્યું છે કેઆ પ્રકરણ પર્યન્ત સમજી લેવું અહિયાં યાવત્ પથી આ સમગ્ર ઉત્તર વાકય ગ્રહણ કરાયું છે. હવે સૂત્રકાર દક્ષિણ ચરમાન્તમાં ઉપપાતનું વર્ણન કરે છે. આમાં शीतभस्वाभीो प्रभुश्रीने मे पूछयुं छेडे - ' अपज्जत्त सुहुम पुढ़वीकाइयाण भंते !' हे भगवन् अपर्याप्त सूक्ष्म है। पृथ्वीश्रयि व 'इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते ! समोहए' मा रत्नडला पृथ्वीना पश्चिम अरमान्तभां भारयान्ति समुद्घातथी भराशुयामे भने 'समोहणित्ता जे भविष શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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