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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०२ विग्रहगत्योत्पातनि० ३४७ कृत्वा यो भव्यो मनुष्यक्षेत्रे अपर्याप्तबादरतेजस्कायिकतया-तेजस्कायिकरूपेणो. स्यत्तुम् - से णं भंते ! कइ समइएणं' स खलु भदन्त ! कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्यतेति प्रश्नः। उत्तरमाह-'सेस' इत्यादि । 'सेसं तं चे३' शेष प्रश्नव्य. तिरिक्तम् उत्तरं सर्वमपि तदेव अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकपकरणकथितमेव । 'एवं पज्जत्त बायरते उकाइयत्ताए वि उपचाएयवा' एवं पर्याप्तबादरतेजस्कायिकतयाऽपि उपपातयितव्याः। यथा अपर्याप्तबादरतेजस्कायिकस्य मनुष्यक्षेत्रे समवहतस्यापर्याप्त बादरतेजस्कायिकरूपेण उपपातो दर्शित स्तथैवापर्याप्तबादरतेजस्कायिकस्य मनुष्यक्षेत्रसमवहतस्य पर्याप्तबादरतेजस्कायिकरूपेणाऽपि उपपातो वक्तव्यः प्रक्रिया पूर्ववदेवोहनीयेति भावः । 'वाउकाइयत्ताए य 'जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्त बायरते उकाहत्ताए उववजित्तए' और मरकर वह मनुष्य क्षेत्र में ही अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ तो 'से गं भंते! कासमइएणं.' हे भदन्त ! वह कितने समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता हैं ? उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'सेसं तंचेव' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में उत्तर रूप सघ कथन अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक के प्रकरण में कहे अनुसार ही समझना चाहिए । 'एवं पज्जत्तवायर तेउकाइयत्ताए चि उववाएयव्यो' जिस प्रकार से मनुष्यक्षेत्र में समवहत अपर्याप्त बादर. तेजस्कायिकका अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से मनुष्यक्षेत्र में उपपात दिखाया है, उसी प्रकार से मनुष्यक्षेत्र में समवहत अपर्याप्त पादरतेजस्कायिकका पर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से भी उपपात कह लेना चाहिये। इस सम्बन्ध में प्रक्रिया पूर्व के जैसी ही उभावित कर लेनी भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्त बायर ते उकाइयत्ताए उववज्जित्तए' भने भशन त મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય થયે डाय तो 'से णभंते ! कइ समइएण'.' सावन समयवाणी व अतिथी hi Gत्पन्न थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे - 'सेंस त घेव' गौतम ! मा सम्पन्धमा ९५५:त ३५ सघणु ४थन मर्यात સૂક્ષમ પૃથિવીકાયિકના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું. एवं पज्जत्त वायरवेउकाइयत्ताए वि उववाएयवो' रे प्रमाणे मनुष्य ક્ષેત્રમાં સમાવહત અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકને ઉપપાત અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકપણુથી બતાવેલ છે, એ જ પ્રમાણે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં સમાવહત અપર્યાપ્ત બાકર તેજ કાયિકને ઉપયત-પર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિક પણાથી શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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