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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ उ.१ अ, श,१ १.१ एकेन्द्रियजीवनिरूपणम् ३२१ स्थानात्समुत्पत्ति स्थानम् अधस्त ने उपरितने वा पतरे विश्रेण्यां भवेत् सदा द्वि. चक्राश्रेणिः स्यात्, तत्र च समयत्रयेन समुत्पत्तिस्थानस्य प्राप्तिर्भवेदिति भावः। ___'से तेणटेणं गोयमा ! जाव उववज्जेज्जा' तत्तेनार्थेन हे गौतम ! यावद् उत्प. घेत । अत्र यावत्पदेन एवमुच्यते, एकसामयिकेन वा, द्विसामयिकेन था, त्रिसामयिकेन वा, विग्रहेणोत्पन्नस्य प्रकरणम्य संग्रहो भवति । 'अपज्जत मुहुम पुढवीकाइया णं भंते !' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्था रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'पुरस्थिमिल्ले चरिमंते समोहए' पौरस्त्ये चरमान्ते समवहतः मरणान्तिकसमुद्घातेन समवहननं कृतवान् मृत इत्यर्थः । 'समोहणित्ता जे भविए इमीसे रथणप्पभाए पुढवीए' समवहत्य वह तीन समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह है कि जब मरण स्थान से समुत्पत्ति स्थान नीचे के अथवा ऊपर के प्रतर में विश्रेणी में होता है तब विश्वका श्रेणी होती है ! वहां तीन समय में समुत्पत्ति स्थान की प्राप्ति होती है। 'से तेणटेणं गोयमा ! जाव उवयज्जेज्जा' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि वह एक समय वाले दो समय वाले अथवा तीन समय वाले विग्रह से वह उत्पन्न हो सकता है। ___ 'अपज्जत्त सुहम पुढवीकाइया णं भंते !' हे भदन्त ! कोई अप. र्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'पुरथिमिल्ले चरिमंते' पूर्वदिशा के अन्तिम भागमें 'समोहए' मरा 'समोहणित्ता' और मरकर वह 'जे भविए इमीसे रय. ત્યારે તે ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહ (શરીર)થી ઉત્પન્ન થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્યારે મરણ સ્થાનથી ઉ૫ત્તિસ્થાન નીચેના અથવા ઉપરના પ્રતરમાં વિશ્રેણીમાં હોય છે. ત્યારે “દ્વિધા વક્રા' શ્રેણી થાય છે. ત્યાં त्रण समयमा उत्पत्ति स्थाननी प्राप्ति थाय छे. 'से वेणट्रेण गोयमा ! जाव उबवज्जेज्जा' ते २४थी गौतम ! में से द्यु छ - ये समयमा બે સમયવાળા અથવા ત્રણ સમયવાળા વિગ્રહ-શરીરથી ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. ‘अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाण भते ! मापन 1४ ५५४ सूक्ष्म पृथ्वी यि ४१ 'इभीसे रयणपभाए पुढपीए' मा २(नामा पृथ्वीना 'पुरथिमिल्ले चरिमंते' ५हिशान मतिम भागमा ‘समोहए' भ२९५ पामे 'समोहणित्ता' भने भ२ पामीर 'जे भविए इभीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्च. શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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