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________________ २८६ भगवतीसूत्रे रणभेदमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा-'पुढवीकाइया, एवं एएणं अभिलावेणं तहेव-चउक्को भेो जाव वणस्सइकाइय त्ति' पृथिवीकायिक एवमेतेनाऽभिलापेन तथैव एतच्छकीय प्रथमशतकवदेव चतुष्का-चतुष्पकारक: सूक्ष्मवादराऽपर्याप्तापर्याप्तरूपो भेदो वक्तव्यः यावद् वनस्पतिकायिका इति । 'परंपरोक्वन्नग कण्हलेस्स अपज्जत्त मुहुमपुढवीकाइया णं भंते !' परम्परोपपत्रक कष्णलेश्याऽपर्याप्तक सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' कति-कति प्रकारकाः कर्मप्रकृतयः प्रज्ञाप्ताः ? इति प्रश्नः। भगवानाह-एवं एएणं' इत्यादि । 'एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ तहेव जाव वेदेति' एवम् एतेनाऽभिलापेन यथैवौधिक सामान्यजैसे-'पुढवीकाइया-एवं एएणं आभिलावेण तहेव च उक्को भेो जाव वणस्सइकाइयत्ति' पृथिवीकायिक इस प्रकार से इस अभिलाप द्वारा इसी शतक के प्रथम शतक में कहे गये अनुसार इन पर परोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रिय पृथिवीकोयिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के ४-४ भेद सूक्ष्म, बादर अपर्याप्तक और पर्याप्तक रूप से कहना चाहिये। 'परंपरोक्वन्नग कण्णलेस्स अपनत्त सुहुमपुढवीकाहयाणं भंते ! का कम्मपगडीओ पन्नत्ताओं हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्या. वाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिरीकायिकों के कितनी कर्मप्रकृतियों का सत्व कहा गया है ? 'एवं एएणं अभिलावेणं जहे व ओहिओ परंपरोवव. न्ना उद्देसओ तहेव जाव बेदेंति' है गौतम । इस अभिलाप द्वारा जैसा मा०या छे. 'त जहा' प्रमाणे छे-'पुढवीकाइया-एवं एएण अभिलावण तहेव चउक्कओ भेओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' पृथ्वी 4िs A प्रमाणे ॥ અભિપ્રાય દ્વારા એકેન્દ્રિય શતકના પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે પ્રમાણે આ પરંપરે ૫૫ન્નક કૃષ્ણશ્યાવાળા એ કેન્દ્રિય પૃથ્વી કાયિકોથી લઈને વનસ્પતિક વિક સુધીના જીના ૪-૪ ચાર-ચાર ભેદો સૂમ, બાદર, અપર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ રીતે થાય છે તેમ સમજવું. __ पर परोवपन्नग कण्हलेस अप्पजत सुहम पुढबीकाइया णं भंते ! कह कम्मपगडीओ पन्नताओ' हे भगवन् ५२ ५५५न बेश्यावाणा मर्यात सक्षम थिने 26 ° ५तिया डावानु त छ १ 'एवं एएण अमिलावेण जहेव ओहिओं पर परोपपन्नग उद्देनओ तहेव जाव वेदेति' . ગૌતમ! આ આમિલાપ દ્વારા સામાન્ય રૂપથી પહેલે ઉદ્દેશો જે પ્રમાણે કહેવામાં શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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