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________________ १२५ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ० १ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० कथितास्तथैव सिद्धिका एव न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति । 'मिच्छादिट्टी जहा कण्हपक्खिया' मिथ्यादृष्टयो यथा कृष्णपाक्षिकाः कृष्णपाक्षिकवदेव मिथ्या. दृष्टोऽक्रियावादीत्यादि समवसरणत्रये विकल्पेन भवसिद्धिका अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'सम्मामिच्छादिट्ठी दो सुवि समोसरणेसु जहा अलेस्सा' सम्यग्मिथ्यादृष्टय मिश्रदृट्टयः द्वयोरपि तृतीयचतुर्थयोरज्ञानिकवादि वैनथिकवादि समवसरणयोर लेश्यवदेव भवसिद्धिका भवन्तीति ज्ञातव्यम् । 'णाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानिनो यावत्केवलज्ञानिनश्च भवसिद्धिकाः अत्र यावत्पदेन मतिश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानिनां संग्रदो भवति तथा च ज्ञानित आरभ्य केवलज्ञानिपर्यन्ताः सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव भवन्ति न तु जिस प्रकार से अप्रेश्य जीव कहे गये हैं उसी प्रकार से सम्पादृष्टि जीव भी भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया' मिथ्यादृष्टि जीव भी कृष्णपाक्षिकों के जैसे अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी अवस्था में भवसि - द्विक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'सम्मामिच्छा दिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा' अलेश्य जीवों के जैसे मिश्रदृष्टि जीव दो समवसरण अवस्था में- अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी स्थिति में-भवसिद्धिक होते हैं ऐसा जानना चाहिये 'णाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानी यावत् केवलज्ञानी जीव भवसिद्धिक ही होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत् पद से मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी और मनः पर्यवज्ञानी लुवा पशु लवसिद्धि न होय छे. अलवसिद्धि होता नथी. 'मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्तिया' मिथ्यादृष्टित्राणा व दृभ्युपाक्षिक भवना अधन प्रभाथे અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈનિયકવાદી અવસ્થામાં લવસિદ્ધિક પણ હાય छे. याने अलवसिद्धि पशु होय छे. 'सम्मामिच्छादिट्ठी दसु वि स्रमोसरणेसु जहा अलेस्सा' बेश्या विमाना भवाना उथन अमाछे भिश्रदृष्टिवाजा लवा એ સમવસરણની અવસ્થામાં-એટલે કે અજ્ઞાનવાદી અને વેંતિયકવાદીપણાની અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક હાય છે તેમ સમજવુ. 'णाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ज्ञानी यावत् કેવળજ્ઞાની જીવે ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભત્રસિદ્ધિક હાતા નથી અહિયાં યાવપથી મતિજ્ઞાનવાળા શ્રુતજ્ઞ તવાળા અવધિજ્ઞાનવાળા અને મનઃપય વજ્ઞાન શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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