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भगवतीस्त्रे
१२२ किं भवसिद्धिका अमवसिद्धिका वा भवन्तीति प्रश्नः परछया संगह्यते । भगवानहि-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' अक्रियावादिनो 'भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति । 'एवं अन्नाणियवाई वि येणइयवाई वि' एवम् अक्रियावादिवदेव अज्ञानिकवादिनोऽपि दैनयिकवादिनोऽपि भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभवसिदिका अपि भवन्तीति भावः । 'सलेस्सा गं भंते ! जोवा किरियावाई सछेश्याः खलु भदन्त ! जीवाः क्रियावा. दिना, 'भवसिदिया पुच्छा,' किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका वेति प्रश्ना, पृच्छया संगृह्यते ! भगवानाह-'मोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसि. दिया नो अमवसिद्धिया' भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्ति सश्याः क्रिया वादिनो जीवा इति । 'सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई किं भवसिद्धिया अभभदन्त ! जो प्रक्रियावादी जीव हैं वे क्या भवसिद्धिक होते हैं या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा! भवसिद्धिया वि अभयसिद्धियो वि' हे गौतम ! अक्रियावादि जीव भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । एवं अन्नाणियवाह वि वेणइयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानिकवादी भी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकारके होते हैं इसी प्रकार के वैनथिकवादी भी होते हैं । 'सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई हे भदन्त ! सलेश्य क्रियावादी जीव क्या भवसिद्धिक होते हैं ? या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा! भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' हे गौतम ! भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियाबाई किं भवसिद्धिया पुच्छा' हे भदन्त ! अक्रियावादी मलेथ जीव क्या भवसिद्धिक डाय छ १ मा प्रश्न उत्तर प्रभुश्री । छ ?- गोयना ! भवसिद्धिया वि अभव सिद्धिया विहगीतम ठियावाही 9 सिद्व पय हाय छ, स२ 484सिद्ध ५६५ डाय छे. 'एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि' मा प्रमाणे અજ્ઞાનવાદી પણ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક બન્ને પ્રકારના હોય છે. વનयिवाही ५y मे४ प्रमाणे भन्ने प्रा२ना डाय छे. 'सलेस्था गं भते । जीवा मरियावाई, मावन् दोश्यापहियापही ७ शु सिद्धि डाय छ ?
मसिद्धि५ उय छ ? 40 प्रश्न उत्तरमा सुश्री ४ छ - गोयमा! सिद्धिया नो अभवसिद्धिया' गीतम! वेश्या ठियावाही ॥ १५Car: हाय छे, मनसिद्धि हेता नथी. 'सलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरिवाई भिवसिद्धिया पुच्छा' ७ मावन् मठियावाही वेश्यावा
सिद्धि હોય છે? કે અભવસિદ્ધિક હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭