SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् नो न वा वानव्यन्तरदेव संबन्धि आयुष्क बध्नन्ति 'नो जोइसिय०' नो न वा ज्योतिष्कदेवायुर्वघ्नन्ति किन्तु 'वेमाणियदेवाउयं पकरें ति' वैमानिकदेवसम्बन्धि आयुषो बन्धका मनापर्यवशानिनो भवन्तीति । 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' केवल शानिनो यथा अलेश्याः केवलज्ञानिनोऽलेश्यवद्व्याख्येयाः, केवलज्ञानिनां न कस्यापि आयुषो बन्धो भवति, तेषामायुबन्धकारणीभूतस्य मोहनीयादेः कर्म बीजस्य केवलज्ञानाग्निना दग्धत्वात् दग्धबीजानां चाङ्कुरोत्पत्तेरभावादिति । रागादिक्लेशसलिलसिक्तायां हि जीवभूमौ कर्मवीजानि अङ्कुराणि प्रमुखते, केवळज्ञाननिदाघतप्ताया सुपरमायायां जीवभूमौ तु कर्मबीजानि न संसाराङ्कुरं णवासिदेवाउय पकरें ति' वे भवनवासी देवों की आयुका बंध नहीं करते हैं 'गो बाणमंतर' वानव्यन्तर देवों की आयुका बंध नहीं करते हैं 'नो जोहसिय०' न ज्योतिषिक देवों की आयुका बंध करते किन्तु-'वेमाणिय देवाउप' वे वैमानिक देवायुका बंध करते हैं। 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' अलेश्य जीवों के जैसे केवलज्ञानी जीव किसी भी आयुका धंध नहीं करते हैं। क्योंकि उनका आयु कर्म बंध का कारण भूत जो मोहनीय आदि कर्म हैं वह केवलज्ञानरूप अग्नि के द्वारा दग्ध हो जाता है। जिस अंकुर का पोज दग्ध हो जाता है उससे फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। यह मोहनीयकर्म का बीज है। जब जीव रूप भूमि रागादिक्लेश रूप जल से सिश्चित होती रहती है तब उसमें कर्म बीज रूप अंकुर उत्पन्न होते रहते हैं। और जब वही जीव रूपी भूमि केवलज्ञानरूपी निदाध से तप्तायमान होती उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ३ गौतम ! 'णो भवणवासि देवाउयं पकरेंति' तसा सवनवासी हैवाना भायुयनी 4 ४२ता नथी. 'जो वाणमंतर' पानयन्त२ हवाना मायुष्यन। म ४२ता नथी. 'नो जोइसिय न्याति देवाना मायुध्यन। म २॥ नथी. ५२तु 'वेमाणिय देवाउय” तेसो मानि: ३१ मायनी मरेछ केवलनाणी जहा अलेस्सा' बेश्या विनान वाना કથન પ્રમાણે કેવળજ્ઞાની છો કેઈપણ આયુને બંધ કરતા નથી. કેમ કે તેઓનું આયુષ્ય કર્મબંધના કારણભૂત જે મોહનીય વિગેરે કર્મ છે, તે કેવળજ્ઞાનરૂપ અનિદ્વારા બળી જાય છે. જે અંકુરના બી બળી જાય છે, તેનાથી અકર ઉગતા નથી. આ મોહનીય કમનું બી છે. જ્યારે જીવ રૂપ ભમિ રાગ વિગેરે કલેશ ૨૫ પાણીથી સીંચાતી રહે છે, ત્યારે કર્મ બીજ રૂ૫ અંકુર તેમાં ઉત્પન્ન થતા રહે છે. અને જ્યારે એજ જીવ ૩પમી કેવળજ્ઞાનરૂપી તાપથી તપાયમાન થતી ઉસર ભૂમિના જેવી બની જાય શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy