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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० ३.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् क्रियावादिनामपि वक्तव्यम् , भवनवासि वानव्यन्तरज्योतिष्कदेगयुष्क न कुर्वन्ति किन्तु वैमानिकदेवायुष्क कुर्वन्तीति भावः । 'तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई कि नेरझ्याउयं पुच्छा' तेजोलेश्याः खल भदन्त ! जीवाः अक्रिया वादिनः किं नैरयिकायुष्क प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्कं वा प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो नेरइयाउयं पकरें ति' नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति तेजोलेश्या अक्रियावादिनो जीवाः किन्तु 'मणुस्सा उपि पकरेंति' मनुष्यभवसमन्धि आयुष्कमपि प्रकुर्वन्ति तथा-'तिरिक्खजोपियाउयं पि पकरेंति तिर्यग्योनिकायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति तथा-'देवाऽयं पि पकको वैमानिक देवायुका पन्ध होना कहा गया है उसी प्रकार से तेजो. लेश्यावाले क्रियावादीयों को भी वैमानिक देवायुका ही बन्ध कहा गया है। भवनवासी वानव्यन्सर और ज्योतिष्क देवायु का बन्ध करना नहीं कहा गया है । 'तेउलेस्साणं भंते ! जीवा अकिरियावाई किनेरइयाउयं पुच्छा' हे भदन्त । जो तेजोलेश्यावाले जीव अक्रियावादी होते है उसको क्या नैरयिक आयुका बन्ध होता है ? या तिर्यगायुका पन्ध होता है ? या मनुष्यायु का बन्ध होता है ? या देवायुका बन्ध होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति' हे गौतम ! उनके नैरयिक आयुका बन्ध नहीं होता है, किन्तु- 'मणुस्सायं पि पकरेंति' उनको मनुष्यायु का भी बन्ध होता है ? तिरिक्खजोणियाउयं पकरें ति' तिर्यगायुका भी धन्ध होता है 'देवाउयं पि पकरेंति' और કથન કરેલ છે, એ જ પ્રમાણે તેજેશ્યાવાળા ક્રિયાવાદીને પણ વૈમાનિક દેવ આયુને બંધ કહેલ છે, ભવનવાસી, વાનયંતર, અને જ્યોતિષ્ક દેવ भायुन। मध ४२वानु' ४ नथी. 'वेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावाई किं नेरइयाउय पुच्छा' 8 सन् २ तश्यावाणा महियावाही હોય છે, તેઓને શું નૈરયિક આયુને બંધ હોય છે? અથવા તિર્યંચ આયુને બંધ હોય છે? અથવા મનુષ્ય આયુને બંધ હોય છે? અથવા દેવ આયુષ્યને બંધ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી से छे ?-गोयमा ! नो नेरक्याउय पकरें ति' तेमाने यि माथुन। म थत नथी. परंतु 'मणुस्साउयपि पकरें ति' तेयाने मनुष्य मायुनी पण ७५ डाय छे. 'तिरिक्खजोणियाउयापि पकरेंति' तिय 4 मायुनो ५९ म छे. 'देवाउप पकरें ति' भने आयुन ५ ५ डाय छे. શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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