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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ २०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् विज्ञेया इति मनुष्यतिरथोः कृष्णादि त्रितय लेश्याकाले आयुर्वन्धाभावादिति । 'अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य, चत्तारि वि आउयाई पकरेंति' कृष्णलेश्या अक्रियावादिनः, अज्ञानिकवादिनः, वैनयिकवादिनश्च जीवाः चत्वारि अपि आयुष्काणि नारकतिर्यग्मनुष्यदेवसम्बन्धीनि प्रकृर्वन्ति, चतुष्प्रकारकमपि आयुष्कर्म बध्नन्तीति भावः । 'एवं नीललेस्सा वि काउलेस्सा वि' एवं कृष्णलेश्यवदेव नीललेश्यावन्तः कापोतलेश्यावन्तश्च अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च जीवाः चतुष्पकारकमपि आयुष्कर्म बध्नन्तीति भावः । क्रिया: वादिनो जीवास्तु केवलं मनुष्यायुष एव बन्धं कुर्वन्तीति' 'तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई कि नेरइयाउयं पकरें ति पुच्छा' तेजोलेश्याः खलु भदन्त ! अपेक्षा से कहा गया हैं क्यों की मनुष्य और तिर्यश्च कृष्णादि तीन लेश्या के सद्भावकाल में आयुका बन्ध नहीं करते हैं । 'अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणयवाईय चत्तारि वि आउयाई पकरेंति अक्रियावादी, अज्ञानवादी, चैनयिकवादी ये सब चारों भी आयुओं का बन्ध करते हैं। कृष्णलेश्यावाले अक्रियावादी जीव 'अन्नाणियवाई' अज्ञानवादी जीव और 'वेणइयवाईय' वैनयिकवादी जीव चारों आयुओं का बन्ध करते हैं। 'एवं नीललेस्सा वि काउलेस्सा वि 'इसी प्रकार नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले अक्रियावादी जीव, अज्ञानिकवादी जीव एवं वैनयिकवादी जीव चारों प्रकार की आयु का बन्ध करते हैं। और क्रियावादी जीव मात्र मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं 'तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं नेरड्याउयं पकरेंति पुच्छा' हे भदन्त ! तेजोलेश्यावाले કથન આ દેવ નારકની અપેક્ષાથી કહેલ છે. કેમ કે-મનુષ્ય અને તિર્યંચ કૃષ્ણ वगैरे ३ वेश्याना समाजमा मायुन। मध ४२ता नथी. 'अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चत्तारि वि आउयाई पकरेंति' महियावाही અજ્ઞાનવાદી, વૈનાયિકવાદી એ બધા ચારે પ્રકારના આયુષ્યને બંધ કરે છે. १०४ वेश्यावा मडियाही ७१ 'अनाणियवाई' अज्ञानही ७१ भने 'वेणइयवाईय' वैनयिाही ७१ यारे ॥२॥ आयुन। म ४३ छ, 'एवं नीललेस्सा वि काउलेस्सा बि' को प्रमाणे नाश्यापा। मनपातवेश्या વાળા જ અક્રિયાવાદી જીવ, અજ્ઞાનવાદી જીવ અને નરયિકવાદી જીવના કથન પ્રમાણે ચારે પ્રકારના આયુષ્યનો બંધ કરે છે. અને કિયાવાદી જીવ Bण मनुष्यायुने। ४३ छे. 'उलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई कि नेरड्याउय पकरें ति' पुच्छा' हे लान् तेश्या ७॥ ३ मा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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