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________________ ६७४ मगवतीस्त्रे मचरमस्यायुबन्धस्यावश्यकत्वात् इति । 'नवरं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो' नवरं सम्यग्मिथ्यात्वपदे तृतीयो भङ्गः-अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यतीत्याकारका एक एव ज्ञातव्यः । तत्र प्रथमद्वितीयचतुर्था भङ्गा न भवन्तीति । एवं जाव थणि यकुमाराण' एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् , अत्र यावत्पदेन असुरकुमारादारभ्य वायुकुमारान्तानां सर्वेषां संग्रहो ज्ञातव्यः । 'पुढवीकाइय आउकाइय वणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए तइओ भंगो' पृथिवीकायिकाकायिकवनस्पतिकायिकानां तेजो. छेश्यायां तृतीयो भङ्गः, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यतीत्याकारको भवति पृथिव्यवनस्पतिषु देवानामागति भवति ततस्तेषामपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्या सद्भावेन एक एव तृतीयो भङ्गो भवतीति भावः। 'सेसेसु पदेषु सव्वत्थ पढमा यह है कि अचरम के नियम से आयुकर्म का बंध होता है। 'नवरं सम्मा. मिच्छत्ते तइओ भंगो 'सम्पग्मिथ्यात्व पद में 'अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति' ऐसा एक तीसरा ही भंग होता है। प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ ये तीन भंग नहीं होते हैं। 'एवं जाव थणियकुमाराणं' इसी प्रकार से यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये, यहां यावत्पद से असुरकुमार से लगाकर वायुकुमारों तक के समस्त भवनपतियों का ग्रहण हुआ है। 'पुढवीकाइय आयुकाइय वणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए तइओ भंगो' पृथिवीकायिक अपकायिक और वनस्पतिकायिक इनके तेजोलेश्या में तृतीय भंग-'अबध्नात्, न बध्नाति, भन्स्यति-' वक्तव्य कहा है, क्योंकि पृथिविकायिक में अप्कायिक में और वनस्पतिकायिक में देवों की आगलि होती हैं-इसलिये उनकी अपर्याप्तावस्था में तेजो. लेश्या का सद्भाब होने से एक तीसरा ही भंग वक्तव्य कहा गया भयभवाणाने नियमथी भायुमन। म डाय छ, 'नवर सम्मामिच्छत्ते तइयो भगों' सभ्यमिथ्यात्व ५४मा 'अबध्नात् , न बध्नाति, भन्तयति' से પ્રમાણેનો આ ત્રીજો ભંગ જ હોય છે. પહેલે બીજે અને એથે એ ત્રણ मग डोता नथी. एवं जाव थणियकुमाराण' २४ प्रमाणे यावत् स्तनित. કુમાર સુધી સમજવું જોઈએ. અહિયાં યાવત્ પદથી અસુરકુમારથી લઈને વાય કુમાર સુધીના સઘળા ભવનપતિઓ ગ્રહણ કરાયા છે. 'पुढविकाइयआउकाइयवणस्सइकाइयाणं तेउलेस्साए तइयो भंगो' पृथ्वीકાયિક. અષ્કાયિક અને વનસ્પતિકાયિકને તેજલેશ્યામાં ત્રીજો ભંગ જે 'अबनात् , न बध्नाति, भन्स्यत्ति' मा प्रमाणेन छे, ते डाय छे. भ. પ્રકાયિકોમાં અષ્કાયિકમાં, અને વનસ્પતિકાયિકમાં દેવેની ઉ૫તી હોય છે તેથી તેઓની અપયોપ્તાવસ્થામાં તેજલેશ્યાને સદૂભાવ હોવાથી એક ત્રીજે, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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