SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 626
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीसूत्रे मिति । 'वाणतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' बानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका यथा अमुाकुमारा: असुरकुमारचदेय वानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकानां वक्तव्यता वाध्येति । 'नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिम्ज' नाम. गोत्रमान्तरायिक चैतानि ज्ञानावरणीयकर्मवदेव चतुर्भङ्गकानि ज्ञातव्यानि अत्रा. लापप्रकारश्च स्वयमेवोहनीयः यथा 'जीवे णं भंते ! नाम कम्मं किं बंधी बंधह बंधिस्सः' इत्यादिरूपे गालापका ज्ञातव्याः । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । ति जाय विहरइ' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति, हे भदन्त ! जीवादीनां पापकर्मादि बंधविषये यद् देवानुमियेण निवेदितं तत्सर्वमेवमेव सर्वथा सत्यमेवेति 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' जैसा कथन भंगों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के सूत्र में किया है वैसा ही कथन भंगों के सम्बन्ध का वानव्यन्तरों के ज्योतिषकों के और वैमानिकों के सूत्रों में भी करना चाहिये, 'नामं गोयं, अंतराय च एयाणि जहा नाणावराणिज्ज' ज्ञानावरण कर्म के सम्बन्ध में जिस प्रकार से चार भंग कहे गये हैं उसी प्रकार से नाम गोत्र और अन्तराय इनके सम्बन्ध में भी चार-चार भंग पूछना चाहिये और उत्तर भी उसी के अनुसार समझ लेना चाहिये यहां आलाप प्रकार अपने आप उद्भाषित करना चाहिये-जैसे-'जीवेणं भंते ! नाम कम्मं किं बंधी, बंधा, बंधिस्सई' इत्यादि । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरई' हे भदन्त जीवादिकों के पापकर्म आदि के बन्ध के विषय में जो आप देवानुप्रियने कथन किया है वह सब सर्वथा सत्य 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा' असुमाराना प्रभा અસુરકુમારોના ભંગોનું જે પ્રમાણે કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે વાન વ્યુત્તર, જતિષ્ક અને વિમાનિકના ભંગે સંબંધી પદેમાં ચાર-ચાર ભંગ डाय छे. तम सभा 'नाम गोय, अंतराय च एयाणि जहा नाणावरणिज्जं' જ્ઞાનાવરણ કર્મના સંબંધમાં જે પ્રમાણેના ચાર ભંગે કહા છે, એ જ પ્રમાણે નામગોત્ર, અને અંતરયના સંબંધમાં પણ ચાર ચાર બંગે સમજવા જોઈએ તેને આલાપપ્રકાર હવયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ. જેમ કે'जीवेण भंते ! नामं कम्मं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ,' त्या प्रारथी समj. _ 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' जाव विहरई' 3 भगवन् ७१ पोरेन ५५ કમ વિગેરે બંધના સંબંધમાં આપ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણેનું કથન કહેલ છે, તે તમામ કથન સર્વથા સત્ય છે. હે ભગવન આપી દેવાનુપ્રિયનું કથન શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy