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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.१९०३ ज्ञानावरणीयकर्माश्रित्य बन्धस्वरूपम् ५७५ दिहिस्स य पढमषितिया' मिथ्याष्टेः सम्यग्मिथ्यादृष्टे (मिश्रष्टे)श्च प्रथमद्वितीयमङ्गौ भवतः अनयोरयोगित्वाभावेन वेदनीय कर्मणोऽबन्धकत्वस्याऽभावादिति । 'नाणिस्स तइयविहूणा' ज्ञानिन स्तृतीयविहीनाः प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गा भवन्ति शानिनः केवलिनचायोगित्वेन तृतीयस्यासंभवादिति । 'आभिणीबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी पढमबितिया' आमिनिबोधिकज्ञानी यावत् मनापर्यवज्ञानी, अत्र प्रथमद्वितीयमङ्गौ भवतः एतेषामयोगित्वाभावादिति । 'केवलनाणी तइयविहूणा' केवलज्ञानीतृतीयविहीनः केवलज्ञानिनोऽयोगित्वेन प्रथमद्वितीयचतुर्थ मनाख्यास्त्रयो भङ्गा भवन्ति । 'एवं नोसन्नोवउत्त अवेदए अकसाई सागारो दृष्टि जीव के और मिश्र दृष्टि जीव के प्रथम और द्वितीय ऐसे दो भंग होते हैं। क्योंकि इनमें अयोगिता के अभाव से बेदनीय कर्म की अबन्धकता का अभाव है। 'नाणिस्म तइयविहूणा' ज्ञानी के प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते है ज्ञानी और केवल ज्ञानी के पुनः वेदनीय कर्मकी बन्धकता न होने के कारण यहां तृतीय मंग नहीं कहा गया है। 'आभिणियोहियनाणी जाव मणपज्ज. धनाणी पढमषितिया' आभिनियोधिक ज्ञानी से लेकर यावत् मनापर्यव ज्ञानी तक के जीवों में प्रथम और द्वितीय एसे दो भंग होते हैं क्योंकि इनके अयोगिता का उस समय असद्भाव रहता है। केवलनाणी तइयविहूणा' केवलज्ञानी के प्रथम द्वितीय और चतुर्थ ऐसे तीन भंग होते हैं-तृतीय भंग यहाँ नही होता है, क्योंकि उस अवस्था में जय
___मिच्छादिद्विस्स सम्मामिच्छादिदिस्स य पढमबितिया' मिथ्याष्टिवाणा अपने અને સમિથ્યાદષ્ટિ એટલે કે મિશ્રદૃષ્ટિવાળા જીવને પહેલે અને બીજે એ રીતે બે અંગે હોય છે. કેમકે–તેઓમાં અગિપણાના અભાવથી વેદનીય भना समान समाप ही छ. 'नाणिस्स तइयविहूणा' ज्ञानान श्रीon ભંગને છોડીને પહેલે, બીજે અને ચોથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. જ્ઞાની, અને કેવળજ્ઞાનીને અગી પણાના સદૂભાવથી વેદનીય કર્મનું બંધકપણું ન
पाथी श्री सनथी. 'आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी पढमबितिया' मालिनिमाधि ज्ञानयी an यावत् मनःपय ज्ञानी सुधीन। જીમાં પહેલો અને બીજે એ રીતે બે ભંગ હોય છે. કેમકે તેઓને भोमियान त म सहला त नथी 'केवलनाणी तइयविहूणा' ३१० જ્ઞાનીને પહેલે, બીજે અને એથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તેમને ત્રીજો
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧