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भगवतीसूत्रे
इति । 'बंधी बंध ण बंधिस्सई' अवघ्नात् सलेश्यो जीवोऽतीतकाले बध्नाति च वर्तमानकाले, न भन्त्स्यति अनागतकाले इति द्वितीयो भङ्गः । 'पुच्छ ।' पृच्छा - प्रश्नः पृच्छया तृतीयचतुर्थभङ्गावपि उन्नेयौ, तथाहि - अबध्नात् न वध्नाति भन्त्स्यति, अवधनात् न बध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकौ, इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोमा' इस्थादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइए बंधी बंध बंधिस्स ' अस्त्येककोsवघ्नात् पाप कर्म, बध्नाति मन्त्स्यति चानागतकाले अन्यमाश्रित्य प्रथमः १ । 'अत्थे गइए बंधी- एवं चउभंगो' अस्त्येककोऽवघ्नात् एवं चतुर्भङ्गः अस्त्येककोsवध्नात् बध्नाति न मन्त्श्यति आसन्नप्राप्तन्यक्षपकल्य माश्रित्य द्वितीयः २ । अस्त्येककोऽवघ्नात् न बध्नाति भन्त्स्यति उपशम मोहबत - और क्या वह भविष्यत् काल में भी पाप कर्म का बन्धक होगा ? ऐसा यह लेश्यावाले जीव का कर्मबन्ध के विषय में प्रथम भंग है । द्वितीय भंग इसके विषय में ऐसा है- 'बंधी, बंधह, ण बंधिस्सर' हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला होता है क्या वह ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में कर्मबन्ध किया होता है ? वर्तमान में भी वह कर्मबन्ध करता है ? तथा भविष्यत् काल में वह कर्मबन्ध नहीं करेगा ? पृच्छा पद से यहां तृतीय चतुर्थ भंग सूचित हुए हैं इनमें तृतीय भंग इसके विषय में ऐसा है- 'बंधी, न बंध, बंधिस्सह ३' हे भदन्त ! जो जीव लेश्यावाला होता है क्या वह ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में पापकर्म का बन्ध किया हो और वह भविष्यत् काल में भी पापकर्म का बन्ध करने वाला होगा, पर वह वर्तमान में पापकर्म का बन्ध नहीं कर रहा है ?, चतुर्थ भंग इस प्रकार से है- 'बंधी, न बंध, શું તે ભવિષ્ય કાળમાં પણ પાપ ક્રમના બંધ કરવાવાળા થશે ? આ રીતે આ વેશ્યાવાળા જીવના કર્મ બંધના સબંધમાં પહેલે સોંગ કહેલ છે.
तेन। जीले लंग मा प्रमाथे छे. 'बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ' हे भगवन् જે જીવ લેસ્યાવાળા હાય શુ તે એવા હોય છે, કે જેથે ભૂતકાળમાં ક્રમ બંધ કરેલ હોય છે, વર્તમાન કાળમાં પણ તે કર્માંધ કરે છે? અને भविष्यभां ते उभध उरतो नथी ? मडियां 'पुच्छा' मे पडथी श्रीले भने ચાથા ભાઁગ ગ્રહણ કરાયાનુ સૂચિત થાય છે. તેમાં આના સબંધમાં ત્રીજો लौंग या प्रमाणे छे.- 'बंधी, न बंध, बंधिस्सइ ३' हे भगवन् જીવ લેશ્યાવાળા હાય છે, તે શું એવા હાઈ શકે છે ? કે-જેણે ભૂતકાળમાં પાપ ક્રમના બંધ કર્યો હૈાય? અને તે ભવિષ્ય કાળમાં પણ પાપ કના અધ કરવાવાળા હાય ! પરંતુ તે વર્તમાનમાં પાપ કર્મના અંધ કરતા નથી ? ૩
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬