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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०११ २७ भवद्वारनिरूपणम् २१९ कुशीलत्वादियुक्तबकुशत्वेन पूरयतीति भावः । एवं पडि सेवणाकुसीलेवि' एवं पतिसेवनाकुशीलोऽपि । एवं बकुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि जघन्यत एक भवग्रहणं भवति उत्कर्षेण तु अष्टौ भवग्रहणानि भवन्तीति । 'एवं कसायकुसी. लेवि एवं कषायकुशीलोऽपि कषाय कुशीलस्यापि जघन्येन एकमवग्रहणमुत्कर्षः तोऽष्ट भवग्रहणानि भवन्तीति । 'णियंठे जहा पुलाए' निर्ग्रन्थो यथा पुलाकः, निग्रन्थस्य पुलाकवदेव जघन्येन एकं भवग्रहणमुत्कर्षतस्त्रीणि भवग्रहणानि भवन्तीति। 'सिणाए पुच्छा' स्नातकस्य खलु भदन्त ! कति भवग्रहणानि भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक' एकमेव भवमहणं भवति स्नातकस्येति २७ ।। प्रत्येक भव प्रतिसेवनाकुशीलत्वादि रूप से युक्त बकुशरूप से पूरण करता है । 'एवं पडिसेघणाकुसीले वि' इसी प्रकार से प्रतिसेवनाकुशील भी जघन्य से एक भवग्रहण करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। ‘एवं कसायकुसीले वि' इसी प्रकार से कषाय कुशील भी जघन्य से एक भव ग्रहण करके और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। 'णियंठे जहा पुलाए' निग्रन्थ पुलाक के जैसे जघन्य से एक भवग्रहण करके और उत्कृष्ट से तीन भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है। सिणाए पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक कितने भवों को ग्रहण करके सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! एक्को' हे गौतम ! स्नातक एक भव को लेकर सिद्ध होता है। भवद्वार का कथन समाप्त । 'एव पडिसेवणाकुसीले वि' मे प्रमाणे प्रतिसेवना मुशीत ५५ ४५-यथा એક ભવ ગ્રહણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભને ગ્રહણ शन सिद्ध थाय छे. 'एव कसायकुसीले वि' मे४ प्रमाणे पाय 3शle પણ જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભોને ગ્રહણ शन सिद्ध थाय छे. 'णियंठे जहा पुलाए' नि-५ yatना ४थन प्रमाणे જઘન્યથી એક ભવ ગ્રહણ કરીને અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ બેને ગ્રહણ કરીને सिद्ध थाय छे. 'सिणाए पुन्छ।' ३ मा स्नात हैं। मवाने अडशन सिद्ध थाय छे ? 20 प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा ! एकको' 3 ગોતમ! સનાતક એક ભવ ગ્રહણ કરીને સિદ્ધ થાય છે. ભવદ્વાર સમાપ્ત રા શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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