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________________ ममेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०८ पञ्चदशं निकर्षद्वारनिरूपणम् १५५ पर्यवयोगात् साधुरपि अभ्यधिक इति । 'सिय होणे त्ति' अशुद्धसंयमस्थानवति। त्वात् 'सिय तुल्लेत्ति' एक संयमस्थानवर्तित्वात् 'सिय अन्महिए ति विशुद्धतर. संघमस्थावनतित्वात् । 'जइहीणे अशंतभागहीणे वा' यदि होनः सनातीयपुलाकान्त. राह पुलाकः तदा अनन्तभागहीनो वा भवेत् अत्र खलु असदभावस्थापनया हैं और विशुद्धतर पर्यायों के योग से वे अभ्यधिक कहलाते हैं-इन्हीं सब बातों को लेकर प्रभुश्री ने गौतमस्वामी से उत्तररूप में ऐसा कहा है। सजातीय पुलाकान्तर से एक पुलाक स्वस्थान सम्निकर्ष से चारित्रपर्यायों की अपेक्षा कदाचित् हीन भी होता है क्यों किविशुद्ध संयमस्थान सम्बन्धी होने से विशुद्धतर हुई पर्यायों की अपेक्षा, अविशुद्धतर संयम स्थान सम्बन्धी होने के कारण अविशुद्धतर पर्यायें हीन होती हैं और ऐसी अविशुद्ध पर पर्यायों के योग से साधु भी हीन हैं ऐसा कहा जाता है तुल्य शुद्धिवाली पर्यायों के योग से साधु भी तुल्प है ऐसा कहा जाता है तथा-विशुद्धतर पर्यायों के योग से साधु भी अभ्यधिक है ऐसा कहा जाता है। इस. लिये-अशुद्ध संयमस्थानवर्ती होने से 'सिय हीणे' ऐसा कहा गया है। एक जैसे संयमस्थानवर्ती होने से 'सिय तुल्लेत्ति' ऐसा कहा गया है और विशुद्धतर संयमस्थानवर्ती होने से 'सिय अन्भहिए त्ति' ऐसा कहा गया है। 'जइहीणे अणंतभागहीणे वा' यदि एक पुलाक दूसरे सजातीय पुलाक से हीन होता है तो वह उससे अनन्तभाग हीन भी हो सकता કહેવાય છે. આ તમામ પ્રકરણને લઈને પ્રભુશ્રીએ શ્રીગૌતમસ્વામીને ઉત્તર રૂપે એવું કહ્યું છે કે-સજાતીય પુલાકાન્તરથી–અર્થાત્ સમાન જાતીવાળા બીજા મુલાકથી એક પુલાક સ્વસ્થાન સંનિકર્ષથી ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી કોઈવાર હીન પણ હોય છે. કેમકે-વિશુદ્ધ સંયમસ્થાન સંબંધી હોવાથી વિશુદ્ધતર થયેલા પર્યાની અપેક્ષાથી અવિશુદ્ધતર સંયમ હીન હોય છે. અને એવા અવિશુ. દ્વતર પર્યાના રોગથી સાધુ પણ હીન હોય છે. તેમ કહેવામાં આવે છે. સમાન શુદ્ધિવાળા પર્યાયના ચોગથી સાધુ પણ તુલ્ય છે. તેમ કહેવાય છે. તથા વિશદ્ધતર પર્યાના વેગથી સાધુ પણ અધિક છે તેમ કહેવાય છે. તેથી मशु संयभवति पाथी 'सिय होणे' से प्रमाणे त छ. से स२५॥ अयम स्थानवतापाथी 'सिय तुल्ले त्ति' से प्रभारी डेस मन विथद्धतर संयमस्थानति पाथी 'सिय अभहए त्ति' थे प्रभावामा मा . ___ 'जह होणे अतभागहीणे वा'ने से Yar मी सततीय साथी हीनय छ, तो ते तनाथी मनताबीन पर छे. 'असंखेन શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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