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भगवतीसूत्रे उत्पद्यते इति । पुलाकापेक्षया यद्वैलक्षणं तदाह-णवरं' इत्यादि, ‘णवरं उको सेणं अच्चुए कप्पे' नवरमुत्कर्षेणाच्युतकल्पे समुत्पद्यते । पुलाकपकरणे उत्कर्षतः सहस्रारे उत्पत्तिः कथिता अत्र तु अन्यु ने कल्पे समुत्पत्तिः कथिता एतावदेव उभयो
लक्षण्यम् अन्यत्सर्व समानमेवेति । 'पडिसेवणाकुसीले जहा बउसे' प्रतिसेवना कुशीलो यथा बकुशः, यथा काल पतस्य व शस्य देवलोके उत्पत्तिा, तत्रापि न सौधर्मः वानव्यन्तरज्योतिष्केषु किन्तु वैधानिकेषु तत्रापि जघन्येन सौधर्मकल्पे उत्कर्षेणाच्युतकल्पे तथैव प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि तत्तद्रूपेण सर्वमवगन्तव्यमिति । 'कसायकुसीले जहा पुलाए' कषयकुशीलो यथा पुलाका, यथा कालगतस्य पुलाकस्य देव. लोके गनिः प्रदर्शिता तत्रापि वैमानि केष्वेव तत्रापि जघन्येन सौधर्मकल्पे तथैव से सौधर्मकल्प में उत्पन्न होता है, यह सब कथन पुलाक के प्रकार जैसा ही समझने का है । 'नवरं' किन्तु पुलाककी अपेक्षा यहां यह विशेषता है कि 'उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे' उस्कृष्ट से अच्युतकल्प में उत्पन्न होता है । क्यों कि पुलाक के कथन में पुलाक की उत्पत्ति उत्कृष्ट से सहस्त्रार देवलोक में कही गई है। बाकी का और सब कथन यहां पुलाक के ही जैसा है। 'पडि सेवणाकुसीले जहा बरसे' प्रतिसेवना कुशील का उत्पाद भी पकुश के उत्पाद जैसा ही जानना चाहिये । प्रति सेवना कुशील मरकर देवलोक में ही उत्पन्न होता है-अन्यत्र नहीं, देवलोक में भी वह भवनवासी, वानरन्तर एवं ज्योतिष्क इनमें उत्पन्न नहीं होता है किन्तु वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होता है-वहां पर भी वह जघन्य से सौधर्म देवलोक में और उत्कृष्ट से अच्युतकल्प में उत्पन्न होता है । 'कसायकुसीले जहा पुलाए' पुलाक के उत्पाद के छ. वैभाhिi rep न्यथा सीधम ४६५मा भने टथी ‘णवरं' उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे' ५२युत ८५भांपन्न याय छे. पुलाउन थन કરતાં એજ આ કથનમાં અંતર છે. કેમકે પુલાકના કથનમાં પુલાકની ઉત્પત્તિ ઉત્કૃષ્ટથી સહસ્ત્રાર દેવકમાં કહેલ છે. બાકીનું તમામ કથન અહિયાં પુલાકના थन प्रभार ४ छे. तेम सम.. 'पडिसेवणाकुसीले जहा बउसे' प्रतिसेवना કુશીલ મરીને દેવલોકમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. બીજે નહીં અને દેવલોકમાં પણ તે ભવનવાસી વાનવ્યન્તર અને જતિષ્કમાં ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ વૈમાનિક દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને વૈમાનિક દેવામાં પણ તે જઘન્યથી સૌધર્મ દેવામાં અને ઉત્કૃષ્ટથી અશ્રુતક૯૫માં ઉત્પન્ન થાય છે. 'सायकुसीले जहा पुलाए' पुसाना पानी भ पाय सुशासन STALE
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬