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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०११ पुद्गलानां कृतयुग्मादित्वम् ८८९ न अर्द्धन युक्त इत्यनर्द्धः यस्या भागो न संभवति स इत्यर्थ इति प्रश्नः । भग वानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो सड़े अणडे' नो सादः परमाणुः किन्तु अनद्धः परमाणुपुद्गलानामच्छेद्याऽभेषांशस्यात् 'दुष्पएसिएणं पुच्छ।' द्विपदेशिकः खलु पृच्छा हे भदन्त ! द्विपदेशिकस्कन्धः किं साझेऽनदोवेवि प्रश्नः । भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सड़े नो अणड्रे' साद्ध नो अनः द्विपदेशिकः स्कन्ध इति । 'तिप्पएसिए जहा परमाणु. पोग्गले' त्रिप्रदेशिकः स्कन्धो यथा परमाणुपुद्गला, विपदेशिकः पुद्गलो नो सार्द्ध किन्तु अनई इत्यर्थः । 'चउपएसिए जहा दुप्पएसिए' चतुःप्रदेशिकस्कन्धो यथा द्विप्रदेशिकः सादों भवति न तु अनौं भवतीति। 'पंचपएसिए जहा ऐसा होता है अथवा ऐसा नहीं होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो सड्ढे अणड्डे पुद्गल का एक परमाणु सार्ध जिसका भाग हो सके ऐसा नहीं होता है किन्तु अनर्द्ध होता है। क्योंकि परमाणुपुद्गल अच्छेद्य और अभेद्य अंशवाले होते हैं। 'दुप्पएसिएणं पुच्छा' हे भदन्त ! विप्रदेशिक स्कन्ध क्या सार्ध होता है अथवा अनर्द्ध होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'सड्ढे नो अणड्डे' हे गौतम! विप्रदेशिक स्कन्ध सार्द्ध होता है अनई नहीं होता है। तिप्पएसिए जहा परमाणुपोग्गले' त्रिप्रदेशिक स्कन्ध परमाणु पुद्गल के जैसा अनर्द होता है सार्द्ध नहीं होता है। 'चउप्पएसिए जहा दुप्पएसिए' चतुष्प्रदेशी स्कन्ध विप्रदेशिक स्कन्ध के जैसा सार्द्ध होता है अनई नहीं માણુ જેને અધ ભાગ થઈ શકે તેવું હોય છે? અથવા આવું નથી હોતુ ? मा प्रश्न उत्तरमा सुश्री ४३ छ -'गोयमा! णो सड्ढे णो अणडढे' પદ્રલનું એક પરમાણુ અર્ધો ભાગ જેને થઈ શકે તેવું હતું નથી, પરંતુ અનર્ધા–અર્ધો ભાગ ન થઈ શકે તેવું હોય છે. કેમકે પરમાણુ પુદ્ગલ અચ્છેદ્ય भने मध अशवाणु डाय छे. 'दुप्पएसिए णं पुच्छा' 3 लापन में प्र. શોવાળે સ્કંધ શું સાધ-અર્ધા ભાગવાળ હોય છે? અથવા અનઈ–અર્થે ભાગ ન થઈ શકે તે હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'मुड नो अणड्ढे' 3 गौतम ! मे प्रदेशापाको ७५ सा-मधे साथ શકે તે હેાય છે. અનર્ધ અર્થાત્ અધે ભાગ ન થઈ શકે તે હેતે नया. 'तिप्पएसिए जहा परमाणुपोगले' त्रय प्रशावाणे २४५ ५२मापुरલના કથન પ્રમાણે અનર્ધ-અર્ધો ભાગ ન થઈ શકે તે હોય છે. સા— असाथ तवा हात नथी. 'चउपएसिए जहा दुप्पएसिए' यार પ્રદેશવાળ સ્કંધ બે પ્રદેશવાળા સ્કંધના કથન પ્રમાણે સાર્ધ–અધ ભાગ
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫