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प्रमेयवन्द्रिका का श०२५ उ.४ २०३ जीवादि २६ द्वाराणां कृतयुग्मादित्वम् ७७३ -कृतयुग्मसमयस्थितिकः यावत्-कदाचित् कल्योजसमयस्थितिको भवति नार. कादि वैमानिकान्तजीवस्य विचित्रसमयस्थितिकत्वादिति । 'सिद्धे जहा जीवे' सिद्धो यथा जीव:-यथा जो कृतयुग्मसमयस्थितिक एव भवति, न योजादि. समयस्थितिकः तथैव-सिद्धोऽपि कृतयुग्मसमयस्थितिक एव भवति न तु-कदाचिदपि योजादि समयस्थितिक इति भावः । 'जीवा गं भंते ! पुच्छा ? जीवाः खलु भदन्त ! पृच्छा ? हे भदन्त ! जीवाः किं कृतयुग्मसमयस्थितिकाः योजसमयस्थितिकाः द्वापरयुग्मसमयस्थितिका:-कल्योजसमयस्थितिका:-वेति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'ओघादेसेज वि विहाणा. देसेण वि कडजुम्मसमयट्ठिया' ओघादेशेनाऽपि-विधानादेशेनाऽपि कृतयुग्मकदाचित् कृतयुग्मसमय की स्थितिवाला होता है यावत् कदाचित् कल्योजसमय की स्थितिवाला होता है । क्यों कि नारक से लेकर वैमानिकान्त जीव विचित्रस्थितिवाला होता है। 'सिद्धे जहा जीवे' जीव जिस प्रकार कृतयुग्मसमय की स्थितिवाला ही होता है, व्योजादि समय की स्थितिवाला नहीं होता है उसी प्रकार से सिद्ध भी कृतयुग्म समय की स्थितिवाला ही होता है । ज्योजादि समय की स्थितिवाला कभी भी नहीं होता है । 'जीवा णं भंते ! पुच्छ।' इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! ममस्त जीव क्या कृतयुग्मसमय की स्थितिवाले होते हैं ? अथवा योजसमय की स्थिति वाले होते हैं ? अथवा द्वापरयुग्म समय की स्थितिवाले होते हैं ? अथवा कल्योजसमय की स्थितिवाले होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कड जुम्मसमय. કઇવાર કૃતયુગ્મ સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે, યાવત્ કઈવાર કલ્યાજ સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે, કેમકે નારકથી લઈને વિમાનિક સુધીનો છે वियित्र स्थितिवाणा होय छे 'सिद्ध जहा जी।' ७१ प्रमाणे कृतयुग्म સમયની સ્થિતિવાળા જ હોય છે, જ વિગેરે સમયની સ્થિતિવાળે તે નથી, એજ પ્રમાણે સિદ્ધ પણ કૃતયુગ્મ સમયની સ્થિતિવાળા જ હોય છે.
यो विगेरे समयनी स्थिति ७५ समये खाता नथी, 'जीवाण भंते ! पुच्छा' मा सूत्र५४।२श्री गौतमसामीय प्रभुश्रीन पूछयु छ हैહે ભગવન સઘળા જ શું કૃતયુમ સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે? અથવા
જ સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે ? અથવા દ્વાપરયુગ્મ સમયની સ્થિતિવાળા હોય છે? અથવા કજ સમયની સ્થિતિવાળા હેય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री शीतभाभीने छ -“गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेणवि कड.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫