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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०२ जीवादि २६ द्वाराणां कृतयुग्मादित्वम् ७५५
टीका- 'जीवे णं भंते ! दबयाए कि कडजुम्मे पुच्छा ? जीवः खलु भदन्त ! द्रव्यार्थ तया-द्रयरूपेण जीवः किं कृतयुग्मरूप योजो-द्वापरयुग्मरूप: कल्योजो वेति प्रश्नः ? भगवानाह --'गोथमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो कडजुम्मे न कृतयुग्मरूपः। 'नो ते भोगेनो दावरजुम्में नो योजरूपोनो द्वापरयुग्मरूपः किन्तु -'कलिओए' कल्योजः द्रार्थता रूपेण एको जीव एकमेव द्रव्यम्-तस्मात् कल्योन एव भवति, न तु-शेषाः पक्षा। संभवन्ति । 'एवं नेरइए वि' एवं सामान्यतो जोवन-नैयिकोऽपि द्रव्यार्थतया कल्योज
अब सूत्रकार कृतयुग्मादिरूप धनों से ही जीवादिक चौबीसदण्डक के ऊपर २६ छाईस द्वारों का एकत्व और पृथक्त्व की अपेक्षा लेकर निरूपण करते हैं-'जीवे णं भंते दबट्टयाए किंकडजुम्मे पुच्छा!' इत्यादि
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा श्री गौतमस्वामी प्रभु श्री से ऐसा पूछते हैं-'जीवे णं भंते ! दवट्ठयाए कि कडजुम्मे पुच्छा' हे भदन्त ! एक जीव क्या द्रव्यार्थता से कृतयुग्मरूप है ? अथवा गोजरूप है ? अथवा द्वापरयुग्मरूप है ? अथवा कल्योजरूप हैं ?
इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! 'नो कडजुम्मे' एक जीव द्रव्याधता की अपेक्षा से कृलयुग्मरूप नहीं है 'नो तेओगे' योजरूप नहीं है 'नो दाबरजुम्मे द्वापरयुग्मरूप नहीं है किन्तु 'कलिओगे' वह कल्योजरूप है क्यों कि द्रध्यार्थता से एक जीव एक ही द्रव्यरूप है । 'एवं नेरहए वि' इसी प्रकार से सामान्यतः एक जीव के जैसा एक नैरयिक भी द्रव्यरूप से कल्पोजरूप ही होता है। शेषपक्ष - હવે સૂત્રકાર કૃતયુગ્મ વિગેરે માંથી જ જીવ વિગેરે ગ્રેવીસ દંડક ઉપર ૨૬ છવ્વીસ દ્વારોનું એક પણાથી અને પૃથપણાથી નીરૂપણ કરે છે. 'जीवे णं भंते ! दबट्टयाए कि कडजुम्मे पुच्छ।' त्यहि ____ ----मा सूत्रद्वारा श्री गौतमस्वामी प्रसुश्रीन से पूछे छे ?-'जीवे गं भंते ! व्वदयाए किं कडजुम्मे पुच्छ।' सशी भगवन् मे ७१ शुद्र०य. પણથીકૃતયુગ્મ રૂપ છે? અથવા ચ્ચે જ રૂપ છે ? અથવા દ્વાપરયુગ્મ રૂપ છે? भया ध्यास ३५ छ ? मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है-'गोयमा 8 गौतम! 'नो कडजुम्मे' से ७१ द्र०यनी अपेक्षाथी कृतयुम्भ ३५ नयी 'नो तेओगे' त्र्यो। ३५ नथी. 'नो दावरजुम्मे' द्वापरयुम ३५ नथी. ५२' 'कलि. ओगे' त्या ३५ छ. भिडे-द्र०या पाथी ४ ४ ४ ०३३५ छ. 'एवं नेरइए वि' या प्रमाणे सामान्यपाथी मे ना ४थन प्रभारी નરયિક પણ દ્રવ્યપણાથી કલ્યાજ રૂપ જ હોય છે. બાકીના ત્રણને તેઓમાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫