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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०३ प्रदेशतोऽवगाहतश्च संस्थाननि० ६३५ व एवम् आ. नं. ७ 'उकोसेणं अगंतपएसिए असंखेनपएसोगाढे पन्नत्ते'
उत्कर्षेणाऽनन्तप्रदेशिकम् तथा असंख्येयाकाशपदेशावगाढ चेति । ० ० 'तस्थ णं जे से जुम्मपएसिए' तत्र खलु यत् तत् युग्मप्रदेशिक आ.न.७ प्रतरत्र्यस्त्र संस्थानम् 'से जहन्ने छप्परसिए छप्पएसोगाढे पन्नत्ते' तद जघन्येन षट्पदेशिकं षट्पदेशावगाढच अस्य च स्थापना एवम् आ. नं. ८ 'उकोसेणं अशंतपएसिए असंखेज्नपएसोगाढे ०० पन्नत्ते' उत्कर्षेणाऽनन्तपदेशिकम् असंख्येयपदेशावागाद चेति । 'तत्य ०.० गंजे से घणतंसे से दविहे पनत्ते' तत्र खलु यत तत ० घनयत्रं तद् द्विविध प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' तथा 'ओयपए- आ.नं.८ प्रदेशिक प्रतरत्र्यस्त्र है वह जघन्य से तीन प्रदेशों वाला होता है और आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाढ होता है। इसका आकार सं. टीका में आ०७ से दिया है सो देखलेवे 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते' तथा यह उत्कृष्ट से अनन्तप्रदेशों वाला होता है
और आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होता है । 'तत्थ णजे से जुम्मपएसिए' तथा उनमें युग्म प्रदेशिक जो प्रतरत्यक्ष है-'से जहन्नेणं छपएसिए छप्पए लोगाढे' वह जयन्य से ६ प्रदेशों वाला होता है और आकाश के ६ छह प्रदेशों में अवगाढ होता है। इसका आकार सं. टीका में आ०८ से दिया है। 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेन परसोगाढे' तथा उत्कृष्ट से यह अनन्त प्रदेशों वाला होता है और आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होता है। 'तत्थ गंजे से घणतं से से दुविहे पन्नत्ते' उनमें जो घनश्यत्र है वह भी दो प्रकार का होता है-'तं जहा' जैसे-'ओयपएसिए य जुम्मपए.
જઘન્યથી ત્રણ પ્રદેશવાળું હોય છે. અને આકાશના ત્રણ પ્રદેશમાં તેને અવગાઢ थाय छे.तना मार सरतमा म.न. ७ सात मindia छ. 'उस्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते' तथा मा संस्थान या मनत પ્રદેશવાળું હોય છે. અને આકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશમાં તેને અવગાઢ થાય છે. 'तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए' मा २ युगम प्रशवाणु प्रत२०५२ संस्थान छ, जहन्नेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे' धन्यथा छ प्राय छ, અને આકાશના છ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે. તેને આકાર સંસ્કૃત ટીકામાં मा० न.८ मा मताव छ. 'उक्कोसेणं अणंतपरसिए असंखेज्ज पएसोगाढे' તથા ઉત્કૃષ્ટથી આ અનંત પ્રદેશેવાળું હોય છે. અને આકાશના અસંખ્યાત प्रदेशमा म थाय छे. तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पन्नते' तमा २ घनश्यस सस्थान छे. ते ५ मे प्रा२नु डाय छे. 'तं जहा' त मा
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫