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भगवतीसूत्रे गृणाति यावदनन्तमदेशिकानि गृह्णातीति । कियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनाया एकादशपदमिहानुकर्षणीयं तत्राह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव आणुपुवि गेव्हह नो अणाणुपुवि गेह' यावदानुपूर्व्या गृह्णाति नो अनानुपूर्व्या गृह्णाति एतत्पर्यन्तं प्रज्ञापनामकरणमध्येतव्यमिति 'ताई मं ने ? कइदिसिं गेव्ह' तानि भदन्त ! कतिदिशं गृहणाति ? भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'निव्वाघारण छद्दिसिं' निर्व्याघातेन षड् दिशम्, व्याघातं प्रतीत्य स्यात् त्रिदिशं स्यात् चतुर्दिशं स्यात् पञ्च दिशम्, एतदाशयेनैव कथितम् 'जहा ओरालिसरीरस्स' यथौदारिकअनन्त प्रदेश वाले पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता है । इन पुद्गलस्कन्धो को जो वह ग्रहण करता है 'जाब आणुपुवि गेव्हह, नो अणाणुपुवि गेoes' यावत् आनुपूर्वी से वह ग्रहण करता है विना आनुपूर्वी के वह उन्हें ग्रहण नहीं करता है । इस प्रकार से यहां तक का प्रज्ञापना सूत्र का ग्यारहवां पद ग्रहण करके कहना चाहिये। अब गौतम पुनः प्रभु से इस प्रकार से पूछते हैं- 'ताई भंते! कइदिसिं गेहह' हे भदन्त ! वह कितनी दिशाओं में से आये हुए पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! निव्याघारणं छहिसिं' हे गौतम! वह विना व्याघात के तो छहों दिशाओं में से आये हुए पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करता है और व्याघात के होने पर वह तीन दिशा से, चार दिशा से एवं पांच दिशा से आये हुए पुगलों को ग्रहण करता है। इसी बात को प्रकट करने के अभिप्राय से सूत्रकार ने 'जहा ओरालिय सरी
अहेशोवाणा युद्धसरुङ धोने थह उरे छे, 'जाव अणतपएसियाई गिव्ह ' ચાવત્ અનંત પ્રદેશવાળા પુદ્ગલ શ્ક'ધેાને ગ્રહણ કરે છે. આ પુલ સ્કંધાને
तेरे छे, तो 'जाव आणुपुव्वि' गिoes नो अणाणुपुवि गिव्हर' યાવત્ આનુપૂર્વીથી પણ તે ગ્રહણ કરે છે, આનુપૂર્વી વિના તે તેને ગ્રહણ કરતા નથી. આ પ્રકારે અહીંયાં સુધીનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૧૧ અગીયારમા પદનું કથન ગ્રહણ કરવું જોઇએ.
डवे गौतमस्वामी इरीधी महावीर अलुने खेवु पूछे छे - 'ताई' भंते ! कइदिसि गेण्ड' हे भगवन् ते डेंटली हिशा गोथी आवेद्या युद्धा धोने अरे हे ? या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु उडे छे ! 'गोयमा ! निव्वाघापणं છિિä' હૈ ગૌતમ ! તે વ્યાધાવિના છએ દિશાઓમાંથી આવેલા પુદ્ગલ સંધાને ગ્રહણ કરે છે. અને વ્યાઘાત થાય ત્યારે તે ત્રણ દિશાએથી ચાર દિશાએથી અને પાંચ દિશાએથી આવેલા પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે, એજ વાત अताववाना अभिप्रायथी सूत्रअरे 'जहा ओरालियसरीरस्स' मे प्रभा सूत्र
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫