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भगवतीले कदेवानां स्थितिः सातिरेका भणितव्या, सैव सनत्कुमारदेवस्य या स्थितिः सैव स्थितिः सातिरेका सागरद्वयोपमा जघन्या उत्कृष्टा सप्त सागरोपमा सातिरेका माहेन्द्रकदेवस्य भवतीत्येतदेव लक्षण्यमन्यत्सवै सनत्कुमारवदेव ज्ञातव्यमिति भावः । एवं बंमलोगदेवाणं वि वत्तव्धया' एवं माहेन्द्रकदेवदेव ब्रह्मलोकदेवानामपि वक्तव्यता ज्ञातव्या । 'नवरं बंभलोग ठिई संवेहं च जाणेज्जा' नवर' ब्रह्मलोकस्थिति जघन्यतः सप्त सागरोपमरूपाम् उत्कृष्टतो दशसागरोपमरूपां तथा कायसंवेधं च स्व स्व भवापेक्षया स्थितिद्वयं संमेल्य जानीयात् । अन्यत् सर्व माहेन्द्रकवदेव ज्ञातव्यमिति। 'एवं नाव सहस्सारो' एवम्-ब्रह्मलोकवदेव यावत् की स्थिति कही गई है, उसकी अपेक्षा इस प्रकरण में माहेन्द्र. कदेवों की स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम की जघन्य से
और सातिरेक सप्त सागरोपन की उत्कृष्ट से कहनी चाहिये । बस यही स्थिति को लेकर उस प्रकरण से इस प्रकरण में विशेषता है और कोई विशेषता नहीं है। 'एवं बंमलोगदेवाणं वि वत्तव्यया' माहेन्द्रदेवलोक की जैप्सी यह वक्तव्यता प्रकट की गई है। ऐसी ही वक्तव्यता, ब्रह्मलोक देवों की भी है। 'नवरं वंभलोगठिई संवेहं च जाणेज्जो' परन्तु ब्रह्मलोकदेवों की स्थिति जघन्य से सांतसागरोपम की है और उत्कृष्ट से१० दस सागगेपमकी है। तथा कायसंवेध अपने २ भव की अपेक्षा दो स्थिति को मिलाकरके होता है। इस प्रकार से पूर्वप्रकरण की अपेक्षा इस प्रकरण में भिन्नता है-बाकी का ओर सब कथन मान्द्रकदेव के ही जैसा है । 'एवं जाव सहस्सारो' ब्रह्मलोकदेव के जैसी ही यावत् सहस्रार देव पर्यन्त की કુમારની સ્થિતિ કહી છે, તે કરતાં આ પ્રકરણમાં મહેન્દ્ર દેવની સ્થિતિ કંઇક વધારે છે સાગરોપમની જઘન્યથી અને સાતિરેક સાત સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટથી કહેવી જોઈએ. આ રીતે સ્થિતિના સંબંધમાં તે પ્રકરણ કરતાં આ પ્રકરણમાં विषपाश छ. म ४ ५] प्रा२नु विशेष नथी, ‘एवं बंभलोगदेवाणं वि वत्तवया' मा भाडेन्द्र सोनु थन २ प्रमाणे घुछ, मे प्रमाणेनु ४थन ब्रह्म। वोनु ५४ छ, 'नवर बंभलोगठिई संवेहच जाणेज्जा' ५२ બ્રહલેક દેવની સ્થિતિ જઘન્યથી સાત સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી દસ સાગરોપમની છે. તથા કાયસંવેધ પિતા પોતાના ભાવની અપેક્ષાથી બે સ્થિતિને મેળવવાથી થાય છે. આ રીતે પહેલાના પ્રકરણ કરતાં આ પ્રકરણના કથનમાં જુદા પણું આવે છે, બાકીનું બીજું સઘળું કથન મહેન્દ્ર દેવના કથન પ્રમાણેનું
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫