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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२५ सु०१ सौधर्मदेवोत्पत्तिनिरूपणम् १७५ मिति । 'नवर ठिई संवेहं च जाणे जा' नवर-केवलं स्थिति कायसंवेधं च मिनमिनरूपेण स स्वभवमाश्रित्य जानीयात् 'जाहे अप्पण। जहन्न कालहिइओ भवइ ताहे तिसु वि गमए' यदा आत्मना जघन्यकालस्थितिको भवति तदा त्रिवपि गमकेषु 'सम्मदिवो विमिच्छद्दिठी वि' सम्यग्दृष्टिरपि भवति मिथ्याष्टिरपि भवति 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' नो सम्यगूमियादृष्टिः, मिश्रन्टेरिह निषेधः क्रियते जघन्यस्थितिकस्य मिश्रष्टेरसंभवात्, अनघन्यस्थितिकस्य तु दृष्टित्रयमपि संभवत्येवेति । 'दो गाणा दो अन्नाणा नियम' द्वे ज्ञाने द्वे अंज्ञाने नियमतः, जघन्यस्थितेरवधिविभङ्ग योरभावात् 'सेसं तं चे' शेषं तदेवेति ९। अतिदेश किया गया है। अतः पृथिवीकायिक प्रकरण के जैसा ही कथन यहां पर जानना चाहिये। परन्तु 'नवरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा' परन्तु यहां स्थिति और संवेध अपने २ भव को आश्रित करके भिन्न २ रूप से जानना चाहिये। 'जाहे अप्पणा जहणकालटिइओ भवई' परन्तु जब वह संख्यातवर्ष की आयु वाला संज्ञी पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च जीव जघन्य स्थिति वाला होता है और सौधर्मदेवों में उत्पन्न होने के योग्य होता है तब वहां 'तिसु वि गमएप्लु' तीनों गमकों में वह 'सम्मदिट्ठी वि मिच्छादिट्टी वि' सम्यग् दृष्टि भी होता है और मिथ्यादृष्टि भी होता है 'नो सम्मामिच्छा. दिही' परन्तु वह मिश्रष्टि नहीं होता है क्योंकि जो जघन्य स्थिति वाला होता है, उसको मिश्रदृष्टि का अभाव होता है । अजयन्य स्थिति वाले में ही तीनों दृष्टियों का सद्भाव होता है। 'दो गागा दो अन्नाणा नियम' नियम से यहां दो ज्ञान और दो अज्ञान होते हैं। દેશ કરેલ છે, જેથી પૃથ્વિકાયિક પ્રકરણ પ્રમાણે જ અહિયાં પણ સમજવું. परंतु महिया स्थिति भने यसव 'नवर ठिई संवेहच जाणेज्जा' मा વચન પ્રમાણે પિત પિતાના ભવને આશ્રિત કરીને જુદા જુદા રૂપથી જાણવા २ . 'जाहे अप्पणा जहण्णकालदिइओ भवइ' परंतु यारे ते सध्यात વર્ષની આયુષ્યવાળે સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્થં ચ જઘન્ય સ્થિતિવાળે હોય છે, मन सौधम हेवामा ५न्न थाने योग्य उय छे. त्यारे त्या 'तिसु वि गमएसु' अणे गभामा ते 'सम्मदिदी वि मिच्छादिदी वि' सभ्य दृष्टि पडाय छ, भने मिथ्या टप ५४ लाय छे, 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' ५तुत મિશ્ર દષ્ટિવાળા દેતા નથી. કેમકે જે જઘન્ય સ્થિતિવાળા હોય છે, તેમને મિશ્ર દષ્ટિને અભાવ હોય છે. અજઘન્ય સ્થિતિવાળાઓમાં જ ત્રણે દષ્ટિએ समाप उय छ, 'दो नाणा दो अन्नाणा नियम' नियमथा मलिया में शान
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫