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भगवतीसूत्रे
मुदपराहताः तथापि भगवता केवलालोकेन दृष्टत्वात् भगवतः सर्वज्ञस्य वचन श्रद्धामादायैव तथास्वीकारस्य आवश्यकत्वात्तत्स्वीकरणीयमिति १८ । 'अणुंबंधो जहाठिई' अनुबन्धो यथास्थितिः, येन प्रकारेण स्थितिः प्रदर्शिता तेनैवप्रकारेणानु बन्धो ज्ञातव्या, अनुबन्धो जघन्येनान्तर्मुहूर्तरूपः उत्कृष्टतस्तु द्वाविंशतिवर्ष सहस्र रूप इति १९। 'से गं भंते !' स खलु भदन्त ! प्रथमम् 'पुढवीकाइए' पृथिवीकायिकः, ततो मृत्वा 'पुणरवि पुढवीकाइए' पुनरपि पृथिवीकायिकः 'त्ति' इतिएवं क्रमेण 'केवइयं कालं से वेज्जा' कियन्तं कालं पृथिवीकायिकस्थिति सेवेत 'केवइयं कालं गइरागई करेज्जा' कियन्तं कालं गत्यागती कुर्थात् हे भदन्त ! यो हि पृथिवीकायिको जीवः स पृथिवीकायात् मृत्वा पुनरपि पृथिव्यामेव जाता अपने केवलज्ञान रूप आलोक (प्रकाश) से इस बात को वहां देखा है, इसलिये सर्वज्ञों के वचन में श्रद्धा रखकर यह कथन स्वीकार करना ही चाहिये १८ 'अणुपंधो जहा ठिई' जिस प्रकार से यहां स्थिति दिख. लाई गई है उसी प्रकार से अनुबन्ध भी जानना चाहिये, इस प्रकार अनुषन्ध जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से वह २२ हजार वर्ष का है १९ अब गौतम प्रभु से इस प्रकार से पूछते हैं'से णं भंते ! पुढवी काहए.' हे भदन्त ! वह पृथिवीकायिक जीव जय मरकर पुनः पृथिवीकायिक हो जाता है तो वह इस क्रम से कितने काल तक पृथिवीकायिक की स्थिति का सेवन करता है ? कितने काल तक वह वहां गमनागमन करता है ? अर्थात्-जो पृथिवीकायिक जीव है वह पृथिवीकायिक से मरकर पुनः पृथिवीकायिक में ही उत्पन्न होता है तो इस क्रमसे वह कितने काल तक पृथिवीकाय को सेवन करता है और
ભગવાને પિતાના કેવળ જ્ઞાન રૂપી આલેક (પ્રકાશ) થી આ વાત ત્યાં જોઈ છે. જેથી સર્વજ્ઞ એવા પ્રભુના વચનમાં વિશ્વાસ રાખીને આ કથનને સ્વીકાર २३. न. १८, अणुबंधों जहा ठिई' २वीशत मडिया स्थितिना समધમાં કથન કર્યું છે. એ જ રીતે અનુબંધના સંબંધનું કથન પણ સમજી લેવું. આ રીતે અનુબંધ-જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્તને અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ બાવીસ હજાર વર્ષ છે. ૧૯ હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને ફરીથી પૂછે છે કે'से भंते ! पुढवीकाइए०' लगवन पृथ्वी थियारे भशन शथी પી કાયિક થઈ જાય છે તે તે આ કંથી કેટલા સમય સુધી પૃથ્વીકાયિ. કની સ્થિતિનું સેવન કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫