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भगवतीसूत्रे पपत्रकवैमानिकदेवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते । अत्र-यावत्पदेन-सनत्कुमार-माहेन्द्रब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्र-सहस्राराऽऽनत-मागतारगकल्पोपनकदेवानां संग्रहः, तत्तः सनत्कुमादेवलोकादारभ्याच्युतदेवलोकपर्यन्तं दशसंख्यककल्पोपपन्नकदेवेभ्य आगत्य पृथिवीकायिकेषु नोत्पद्यन्ते इति भावः। कल्पातीतवैमानिकेभ्य आगत्य नैव जीवामामुत्पत्तिः पृथिवीकायिकेषु भवति किन्तु कल्पोपन्नकवैमानिकेभ्य एव आगत्य भवति तत्रापि सौधर्मेशानकल्पोपपन्नकेभ्य एवो. त्पत्तिभवति न तु सनत्कुमाराधच्युता तकल्पोपपन्नकवैमानिकदेवेभ्य आगत्यो त्पत्तिर्भवतीति तात्पर्यम् । 'सोहम्मदेवे गं भंते सौधर्मदेवः खलु भदन्त ! 'जे भविए पुढवीकाइएसु उववज्नित्तए' यो भव्यः पृथिवीकायिके पुत्पत्तुम्, 'से णं भंते ! केवइयकालट्ठिइएसु उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त! कियत्कालस्थितिकपृथिवीकायिकेपूत्पधेतेति प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं जहा' इत्यादि, 'एवं जहा जोइ. उत्पत्ति नहीं होती है, यहां यावत्पद से 'माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार आनत प्रागत और आरण' इन देव लोकों का प्रहण हुआ है, अतः इन कल्पों से भी आकर के देव जीवों की उत्पत्ति पृथिवीकायिकों में नहीं होती है। और न कल्पातीत वैमा. निक देवों से आकर के देव जीवों की उत्पत्ति पृथिवीकायिकों में होती है, किन्तु सौधर्म और ईशान इन कल्पों से आकर के देव जीवों की उत्पत्ति पृथिवीकायिकों में होती है ऐसा इस कथन का निष्कर्षार्थ है,
अब गौतम प्रभु से पुनः ऐसा पूछते हैं-'सोहम्मदेवे गं भंते ! जे भविए पुत्वीकाइएसु उधज्जित्तए' हे भदन्त ! जो सौधर्म कल्प का देव पृथिवी. कायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है 'से णं भंते ! केवइयकालट्ठिएसु उववज्जति' वह किसने काल की स्थितिवाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न આવીને પણ તેઓની ઉત્પત્તિ થતી નથી. અહિયાં યાવાદથી મહેન્દ્ર બ્રહ્મ a, aids, भाशु, सहसा२, मानत, प्रायत अन मारण भावना ગ્રહણ કરાયા છે. જેથી આ બધા દેવકોમાંથી આવીને પણ દેવ જીવની ઉત્પત્તિ પૃથ્વીકાયિકામાં થતી નથી. તથા કWાતીત વૈમાનિક દેવમાંથી આવીને દેવ ની પૃથ્વીકાચિકેમાં ઉત્પત્તિ થતી નથી. પરંતુ સૌધર્મ અને ઈશાન આ બે કપમાંથી આવીને દેવ જેની પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પત્તિ થાય છે. આ પ્રમાણે આ કથનને સારાંશ કહ્યો છે.
शक्षी गीतमाभी प्रभुने पूछे छे है- 'सोहम्मदेवे णं भवे ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववज्जित्तए'हे भगवन ने सौधर्म ३६५भाना हेव पृथ्वीय. IMI SA-न थपाने योग्य छे. 'से णं भंते ! केवइयकालदिइएसु उववज्जति'
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫