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________________ Ev भगवतीसूत्रे कालस्थितिको भवेत अथ चासुरकुमारेषु जातो भवेत् तदा 'तस्स वि ते चैव पच्छि लगा तिन्नि गमगा भाणियन्त्रा' तस्य स्वयमुत्कृष्टकालस्थितिकस्य असुरकुमारेषुउत्पित्सोरपि त एव - त्रयः पश्चिमाचरमा गमका भणितव्याः, स यदि स्वयमुत्कृष्टकाळस्थितिको सुरकुमारेषु समुत्पित्सुः स कियत्काल स्थितिकाऽसुर कुमारेषूत्पते तथा एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्वमेव पश्नोत्तरादिकं स्वयम्त्कृष्टकाल स्थितिकाऽसंख्यातवर्षायुष्क तिर्यग्योनिकस्य चरमगमत्रिकत्रदेव अत्रापि नरमास्त्रयोsपि गमा वक्तव्या इति । तिर्यग्योनिकान्तिमगमत्रयापेक्षया यद्वैलक्षण्यं यत् स्वयमेव दर्शयति- 'नवर' इत्यादि, 'नवर' नवरम् - केवलम्, 'सरीरोगाहणा तिसु विगमएस जहन्नेणं तिनि गाउयाई' शरीरावगाहना त्रिष्वपि गमकेषु जघन्येन काल की स्थिति वाला है और असुर कुमारों में उत्पन्न होने के योग्य तो इस सम्बन्ध में भी 'तस्स वि ते चैव पच्छिल्लगा तिनि गमगा भाणि poor' उसके अन्तिम तीन गम कहना चाहिये, जैसे उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला वह मनुष्य यदि असुरकुमारों में उत्पत्ति के योग्य है तो हे भदन्त ! वह कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? तथा ऐसे वे मनुष्य वहां एक समय में कितने उत्पन्न होते हे ? इत्यादि सब प्रश्नोत्तर के सम्बन्ध में स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यग्योनिक जीव के अन्तिम तीन गमकों के जैसे ही यहां अन्तिम तीन गमक कहना चाहिये, परन्तु इन गमों में जो उन गमों की अपेक्षा अन्तर है वह सूत्रकार दिखलाते हैं- 'नवर" इत्यादि यहां पर शरीर की अवगाहना तीनों गमों में जघन्य - સ્થિતિ વાળો છે, અને અસુર કુમારેામાં ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય છે, તે આ संध पशु 'तस्स वि ते चेत्र पच्छिल्लगा तिन्नि गमगा भाणियव्वा' ते વિષયમાં છેલ્લા ત્રણુ ગમે કહેવા જોઈએ. જેમકે-ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા તે મનુષ્ય જો અસુર કુમારામાં ઉત્પન્ન થવાને ચેગ્ય છે, તે હે ભગ વન્ તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા અસુર કુમારામાં ઉત્પન્ન થાય છે ? તથા એવા તે મનુષ્યે ત્યાં એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે ? વિગેરે તમામ પ્રશ્નોત્તર સંબંધમાં કુ ટ કાળની સ્થિતિવાળા તિય ચ ચેાનિવાળા જવેાના સબધમા કહેલ છેલ્લા ત્રણ ગમે પ્રમાણે અહિયાં દેલ્લા ત્રણ ગમે! સમ જવા. પરતુ આ ગમેામાં તે ગમે! કરતાં જે જુદાઈ છે તે સૂત્રકાર ખતાવતાં हे छे. 'नवरं' इत्यादि सहीं शरीरनी अवगाहना भये गभौमां नधन्यथी रखने उद्धृन्टथी भक्षु गव्यूति (प्यार गाउ) प्रभाणुनी छे. 'अवसेसं तं चेव' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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