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________________ ५५६ भगवतीसूत्रे संक्षिपश्चपन्द्रियतिर्यग्योनिकः खलु भदन्त ! 'जे भविए' यो भव्यः-समुत्पत्तियोग्यः, 'असुरकुमारेसु उववज्जित्तए' असुरकुमारेषु उत्पत्तुम्, ‘से णं भंते' स खलु भदन्त ! केवइयकालद्विइएसु उपवज्जेज्जा' कियत्कालस्थिति के पुत्पधेत हे भदन्त ! यः पर्याप्तासंज्ञिपश्चन्द्रियतिर्यग्योनिको जीवोऽसुरकुमारेषु समुत्पत्तियोग्यो विद्यते स खलु कियत्काल स्थिति केषु असुरकुमारेषु उत्पधेत इतिपश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं दसवाससहस्सहिइएस' जघन्येन दसवर्ष सहस्रस्थिति केषु उत्पद्यते, इत्यग्रिमेण सम्बन्धः। 'उकोसेणं' उत्कर्षेण 'पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्टिइएमु उववज्जेज्ना' पल्योपमस्यासंख्येयभागस्थितिकेषु असुरकुमारेषु उत्पथेत । इह पल्योपमस्यासंख्येयभागप्रहणेन पूर्वकोटि ग्राह्या यतः संमूच्छिमजीवानामुस्कृष्टतः पूर्वकोटिममाणमायुभवति स च संमृच्छिम जीवः उत्कृष्टतः स्वायुष्कतुल्यमेव देवायुपो बन्धनं करोति न ततोऽधिकस्यायुषो बन्धनं करोति---- अग्रिम प्रकरण का कथन करते हैं-'पजत्त असन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ? 'इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव कि 'जे भविए असुरकुमारेलु उपत्र०' जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह हे भदन्त ! 'केवयकाल' कितने काल की स्थितिवाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं दसवाससहस्सटिइएस्सु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जह भाग०' वह जघन्य से दश हजार वर्ष की स्थिति वाले असुरकुमारों में और 'उकोसेणं' उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले अप्रकुमारों में उत्पन्न होता है, यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग के ग्रहण से पूर्वकोटि ग्राह्य है, क्योंकि भावना२ ४२१वें थन ४२ छ – 'पजत्तअसन्निपंचिं दियतिरिक्खजोणिए णं भंते !' मा सत्रथी गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछयु छे 3-3 मापन ५यात सभी पयन्द्रिय तिय य योनिवाणी ७१ २ 'भविए असुरकुमारेसु उवव०' असुमाराम पन यवान योग्य छ, सावन्त 'केवइयकाल.' टस अनी स्थितिमा मसुशुभाशमा ५-- थाय छ ? मा प्रश्न उत्तर प्रभु ४ छ -'गोयमा!' उ गीतम! 'जहन्नेणं दस पाससहस्सद्विइएस उक्कोसेणं पलिओषमस्स असंखेज्जइभागं०' ते धन्यथी इसહજાર વર્ષની રિથતિવાળા અસુરકુમારોમાં અને ઉત્કૃષ્ટથી પલ્યોપમના અસં. ખ્યાતમા ભાગની સ્થિતિવાળા અસુરકુમારેમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં પાપમના અસંખ્યાતમા ભાગના પ્રણથી પૂર્વ કેટિ ગ્રહણ કરાઈ છે. કેમકે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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