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भगवतीसूत्रे 'सो चेव उक्कोसकालहिइएसु उववन्नो' स एव पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका उत्कृष्टकालस्थिति केषु सप्तमपृथिवीनैरयिकेषु उत्पद्येत स खलु भदन्त ! कियकालस्थिति केषु उत्पद्येत 'सच्चेव लद्धी जाव अनुबंधोत्ति' सैंव लब्धिर्यावदनुबन्ध इति परिमाणादारभ्य अनुबन्धान्तं सर्वमपि प्रकरणं पूर्ववदेव प्रश्नोत्तराभ्यां वक्तव्यमिति । 'भवादेसेण जहन्नेणं तिन्नि मगहणाई' भवादेशेन-भवप्रकारेण जघन्येन त्रीणि भवनहणानि 'उकोसेणं पंचभवग्गहणाई' उत्कर्षेण पञ्चभवग्रहणानि, तत्र त्रीणि मत्स्यभवग्रहणानि, द्वे च नारकभवग्रहणे इति पञ्च । एतस्मादेव वचनादु त्कृष्टस्थितिषु सप्तम्यां वारद्वयमेवोल्पद्यते, इत्यवसीयते । 'काला.
'सो चेव उकोसकालढिइएसु उववन्नो' इस सूत्र द्वारा गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं-हे भदन्त ! यदि वह पर्याप्त संज्ञी पश्चे. न्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तम पृथिवी सम्बन्धी नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो वह वहां कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सच्चेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति 'हे गौतम! यहाँ पूर्व परिमाण से लेकर अनुषन्ध तक का समस्त कथन पहिले के जैसा ही प्रश्नोतरों द्वारा प्रकट कर लेना चाहिये, 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिणि भवगहणाई' भव की अपेक्षा जघन्य से तीन भवों को ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट से 'पंच भवग्गहणोई' पांच भवों को ग्रहण करने तकतीन भव मत्स्य के और दो भव नारक के-इस प्रकार से पांच भवों को ग्रहण करने तक वह उस गति का सेवन करता है और इतने 'सो चेव उकसकाल ईएसु उववन्नो०' 21 सूत्री गौतभावामी प्रसुन से પૂછે છે કે હે ભગવન જે તે પર્યાપ્ત સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ યે નિવાળા જીવ ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા સાતમી પૃથ્વીના નિયિકોમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય તે તે ત્યાં કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નિરયિકમાં ઉત્પન્ન થાય है? A1 प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -सच्चेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति है ગતમ! અહિયાં પૂર્વ પરિણામથી લઈને અનુબંધ સુધીનું સઘળું કથન પહેલાં
या प्रभारी प्रश्नोत्तरे द्वारा ही सेवा नये. 'भवादेसे णं जहन्नेणं तिणि भवग्गणाई' सनी अपेक्षा धन्यथी त्रशुलवाने अड ४२i सुधी भने Gष्टथी 'पंच भवगाहणाई' पाय भवाने अडल २i सुधी भेट ભવ માછલાના અને બે ભવ નારકના આ રીતના પાંચ ભને ગ્રહણ કરતાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪