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________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२४ उ. १ सू०४ जघन्यस्थितिकनैरयिकाणां नि० ३९३ जयभ्यकालस्थिति रूपर्याप्तासंज्ञे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः खच मदन्त ! 'जे भविए' यो भव्यो योग्यः 'उक्कोसकालट्ठिएस' उत्कर्षकालस्थितिकेषु रयण भापुढवि नेरइएस' रत्नप्रमा पृथिवीसंबन्धि नैरयिकेषु 'उवजित्तए' उत्पत्तुम् 'से णं भंते' सः - जघन्य कालस्थितिकपतासंज्ञिन्द्रिय तिर्यग्योनिको य उत्कृष्टकाल स्थितिकरत्नप्रभानार के पृत्सत्चियोग्यो विद्यते स खलु भदन्त ? ' के वइयकालहिरसु' कित्काल स्थिति केषु नैरपिकेषु 'उपजेजा' उत्पद्येवेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्नेर्ण' जघन्येन 'पलिओवमस्स असंखेज्जइभागदिए उज्जेना' पल्पोपमस्यासंख्येयमाग स्थिति केषु नैरयिक पूत्पद्येत 'उक्को सेण विपलिमोस्स असंखेज्जइभागद्विरसु' उत्कर्षेणापि पल्योपमस्यासंख्याततिरिकखजोणिए णं भंते !' हे भदन्त ! जघन्य काल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव 'जे भविए उक्कोसकालट्ठिएस रयण भा पुढवीनेरईएस' जो उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथिवीके नैरयिकों में 'उवज्जिन्तर' उत्पन्न होने के योग्य है 'से णं भंते ! वह 'वयकाल र उबवजेज्जा' कितने काल की स्थिति वाले नैरथिको में उत्पन्न होता है ? अर्थात् जो असंज्ञी पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च कि जिसकी आयु जघन्य है यदि उत्कृष्ट स्थिति वाले प्रथम पृथिवी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है - 'गोयमा ! जहनेणं पलिओ मस्स असंखेज्जइ०' वह जघन्य से पल्योपम के असं ख्यातवे भागप्रमाण स्थिति वाले नैरथिकों में उत्पन्न होता है और 'उक्को सेण वि' उत्कृष्ट से भी पल्यापम के असंख्यातवे भाग प्रमाण पर्याप्त असंज्ञी यथेन्द्रिय व जे 'भविए उक्को कालट्ठिइपसु रयणप्पभा पुढवीनेरइएसु वज्जिसए' उत्कृष्ट स्थितिवाजा रत्नप्रभा पृथ्वीना नेदयिडाभां उत्पन्न थवाने योग्य मन्या हाय छे. 'से णं भंते ।' डे भगवन् ते 'केवइय कालट्ठिइएस उबवज्जेज्जा' डेंटला अजनी स्थितिवाजा नैरथि।मां उत्पन्न थाय છે ? અર્થાત્ જે અસંજ્ઞી પર્યાપ્ત પ ંચેન્દ્રિય તિર્યંન્ચ કે જેની આયુ જઘન્ય ઢાળની છે. જો તે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિત્રાળા પહેલી પૃથ્વીના નારિકામાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય હાય તેા તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નૈરચિકામાં ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अछे - 'गोयमा ! जहन्नेणं पलिओ - मस्स असंखेज्जइ०' ४धन्यथी ते पस्योपसना असंख्यात लाग प्रभाशु स्थितिवाणा नैरयिहै।मां उत्पन्न थाय छे भने 'उक्कोसेण वि०' उत्ष्टथी पा भ० ५० શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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