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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०४ जघन्यकालस्थितिकनैरयिकाणा नि० ३८७ सानानुबन्धातिरिक्तं परिमाणसंहनादिकं सर्वमपि पूर्वदेव ज्ञात मिति 'से णं भंते ! स खलु पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः खलु भदन्त ! प्रथमम् 'जहन्न कालटिइए' जघन्यकालस्थितिकः 'पज्जत्त असन्निपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए' पर्याप्ताऽसंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यम्योनिकोऽभवत्, तदनन्तरं मृत्वा 'रयणप्पभाए पुढवीए नेरइए' रत्नमभापृथिव्यां नैरयिकोऽभूत, 'पुगरवि पज्जत्तासन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिएत्ति' पुनरपि नरकानिःसृत्य पर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकइति, एवं क्रमेण परंपरया केवइयं कालं से वेज्जा' कियन्तं कालं तिर्यग्योनि नरकगति च से वेत, 'केवइयं कालं गइरागई करेजा' "कियत्कालपर्यन्तम् एवं क्रमेण गत्यामती-गमनागमने कुर्यादिति प्रश्नः । उत्तरमाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादे. सेणं' भवादेशेन-भाषकारेण 'दो भवग्गहणाई द्वे भवग्रहणे एकत्र भवे पर्याप्ता. संज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको द्वितीये नारको नरकानिःसृतः सन् अनन्तरतया पन्ध यहां अन्तर्मुहूर्त का है 'सेसं तं चेव' इन तीन भिन्नताओं के सिवाय बाकी का और सय कथन परिमाण सम्बन्धी एवं संहनन आदि पूर्वोक्त जैसा ही है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-से णं भंते । जहन्नकालटिइए पज्जत्तप्रसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोगिए रयणप्पभा० जाव करेज्ना' हे भदन्त ! जघन्य कालकी स्थिति वाला वह पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च यदि मरकर रत्नप्रभा पृथिवी का नरयिक होता है और फिर से वहां से निकल कर वह पुनः पर्याप्त असंज्ञी पञ्चन्द्रियतिर्यश्च होता है तो इस स्थिति में वह उस गति का कवतक सेवन करता है-कब तक वह गमनागमन करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा।' हे गौतम । 'भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' भव प्रशस्तपा भने अ५शस्त समवे छे. 'अणुबंधो अंतो मुहुत्त' मलियां मनम'ध मत इतना छे. 'सेसं तं चेव' मात्र भिन्नता राहीन બીજુ તમામ કથન પરિણામ સંબંધી અથવા સંહનન સંબંધીનું તમામ કથન પૂર્વોક્ત પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું. वे गीतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे है ‘से णं भंते ! जहन्नकालदिइए पज्जत्तअसन्निपचि दियतिरिक्खजाणिए रयणप्पभा० जाव करेज्जा' 3 सा. વન જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળે તે પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રય તિય"ચ જે મરીને રત્નપ્રભ પૃથવીને નૈરયિક થાય અને ફરી ત્યાંથી નીકળીને તે ફરીથી પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ થાય તે આ સ્થિતિમાં તે એ ગતિનું સેવન કયાં સુધી કરતો રહે છે ? અને કયાં સુધી તે ગામના ગમન અવર १२ ४२ छ ? ॥ प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ8-गोयमा गीतम! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' भनी मपेक्षा ते मे स संधी मर 'काला શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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