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भगवतीसूत्रे जीवा' ये जीवाः 'कंदत्ताए वकमंति' कन्दतया अवक्रामन्ति कन्दाकारेणोत्पद्यन्ते इत्यर्थः 'ते गं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! जीवाः कन्दाकारपरिणतास्ते जीवा इत्यर्थः । 'कोहिनो उववज्जति' केभ्य उत्पद्यन्ते हे भदन्त ! शालिव्रीहिगोधूम यवादीनां संबन्धिनो ये जीवा यवादीनां कन्दरूपेण समुत्पधन्ते ते कन्दस्थितजीवाः केभ्यः स्थानेभ्यो नैरयिकेभ्य स्तिर्यग्भ्यो देवेभ्यो वा आगत्य तत्र उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं' इत्यादि, 'एवं कंदाहिगारेण सच्चेव मूलुद्देसो अपरिसेसो भाणियव्वा' एवं कन्दाधिकारे सएच मूलोद्देशकः प्रथमवर्गस्य प्रथमोद्देशक: अपरिशेषः-संपूर्णः भणितव्योऽध्ये तव्यः उत्पत्त्यपहारावगाहनादिकः संपूर्णोऽपि विषय इहाध्येतव्यः, कियत्पर्यन्तं मूलोद्देशक इह पठनीय स्तत्राह-'जाव' इत्यादि,
टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इन शाली ब्रीहि आदिकों के कन्द के आकार से जो जीव उत्पन्न होते हैं 'ते णं भंते ! जीवा' हे भदन्त ! वे जीव वहां कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं-क्या नैरयिक से आकर के उत्पन्न होते है ? या तिथंचगति से आकरके उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्य गति से भाकर के उत्पन्न होते हैं ? या देवगति से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं - एवं कंदाहिगारेणं सच्चेव मूलुहेसो अपरिसेसो भाणियन्वो' हे गौतम! इस कन्द के अधिकार में वही समस्त मूल का उद्देशक ‘यावत् अनेक बार अथवा अनन्तबार उत्पन हुए हैं। यहां तक का कहना चाहिये इसी कथन में उत्पत्ति, अपहार, अवगाहना आदि समस्त विषय आजाते हैं सो ये समस्त विषय भी यहां पूर्वोक्तानुसार ही कहना चाहिये, इस विषय में स्पष्टीकरण
ટકાથ–ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને આ સૂત્ર દ્વારા એવું પૂછયું છે કેહે ભગવન આ શાલી, વ્રીહી વિગેરેના કન્દના આકારથી જે જીવ ઉત્પન્ન थाय छ, 'ते ण भते ! जीवा' मवान् त यां यांची भावीन તે ઉત્પન્ન થાય છે ? શું નરકમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિર્યંચ ગતિથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્ય ગતિથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેવગતિથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ प्रशन उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीर 3 छ -' एवं कंदाहिगारेण सच्चेव मलुदेखो अपरिसेसो भाणियव्यो' गौतम ! मान्न समयमi or સઘળે મૂળ સંબંધી ઉદ્દેશે યાવત્ અનેકવાર અથવા અનંતવાર ઉત્પન્ન થયા છે.' અહિ સુધીનું કથન કહેવું જોઈએ. આજ કથનમાં ઉત્પત્તિ, અપહાર,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪