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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२१ व.१ उ.१औषधिवनस्पतिशाल्यादिगतजीवनि० २१ 'सालीवीहीजवजवजवगमूलगनीवत्ताए उववन्नपुवा' शालिव्रीहियषयवयवकमूलजीवतया उत्पन्नपूर्वाः-हे भवन्त । सर्वप्राणाः सर्वभूताः सर्वजीवा सर्वसत्त्वाः किम् शाल्यादि मूल जीवरूपेग पूर्वप्नुत्पन्नाः नवेति प्रश्नः, भगवानाइ'हंत' इत्यादि, हंत गोयमा इन गौतम ! हे गौतम ! सोऽपि माणा भूता जीवा सत्ताः पूर्व शालगादिमूलजीवरूपेगोत्पन्ना एव 'असई अदुवा अणतखुत्तो' असकत अथवा अनन्तकृत्या, हे गौतम ! सर्वे पाणा भूता जीवाः सत्वाः शाल्यादिम्लजीवरूपेणानेकवारमनन्तवारं वा उत्पन्ना एवं नैतेषु प्राणभूतजीवसत्वानाम पूर्वाणामुत्पत्तिभरति अपितु अनन्तापरिमितकालं यावत् पूर्वमपि जीवाः शाल्यादिमूलजीवतयोत्पन्ना अभूवन्नेवेति । एवम्-एकादशशत के प्रथमे उत्पलो. देशके यानि त्रयस्त्रिंशद् ३३ द्वाराणि सन्ति तानि संगृह्यन्ते । एतानि सीणि द्वाराणि जीव और समस्त सत्व ये सब पहिले 'सालीयोहिजवजवजवगमः लग जीवत्ताए उपवनपुत्रा' शालि आदि के मूल के जीव रूप से उत्पन हुए हैं ? या उत्पन्न नहीं हुए हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, गोयमा असई अदुवा अणंतखुत्तो' हां, गौतम ! ये सब अनेक पार अथवा अनन्त बार शालि आदि के मूल के जीवरूप से उत्पन्न हुए हैं। ऐसा नहीं है कि शाल्यादिकों में प्राण, भूत, जीव एवं सत्व पहिले पहिले उत्पन्न नहीं हुए हैं किन्तु अनन्त अपरिमित कालतक पहिले भी जीव शाल्यादि मूल के जीवरूप से उत्पन्न हो ही चुके हैं। इस प्रकार से ग्यारहवें शतक में प्रथम उत्पल उद्देशक में जो ३३ द्वार हैं वे सब यहां गृहीत हुए हैं। ये सब बार यहां प्रत्येक उद्देशक में संगृहीत हुए हैं-अर्थात् २१ वे २२ वें और २३ वे शतक में ८-८ वर्ग हैं-प्रत्येक सपा सूत, सधा व भने सबा सत्व। मे १५ पास 'साली वीहि जवजवजवगमूलगजीवत्साए उववन्नपुव्वा' शी विगेरेना भूजना १३५था ઉત્પન થયા છે? અથવા ઉત્પન નથી થયા ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે छ -'हंता गोयमा ! असई अदुवा अर्णतखुत्तो' है गोतम ये सधा मन:વાર અથવા અનંતવાર શાલી વિગેરેના મૂળના જીવ રૂપથી ઉત્પન થયા છે. એવું નથી કે શાલી વિગેરેમાં પ્રાણ, ભૂત, જીવ અને સત્વ પહેલાં ઉત્પન્ન થયા નથી. પરંતુ અનંત અપરિમિત કાળ સુધી પહેલાં પણ જીવ શાલી વિગેરેના મૂળના જીવપણાથી ઉત્પન્ન થઈ જ ચૂક્યા હોય છે. આ પ્રમાણે અગ્યારમાં શતકમાં પહેલા ઉત્પલ નામના ઉદ્દેશામાં જે ૩૩ તેત્રીસ દ્વારે છે, તે બધા અહિયાં ગ્રહણ કરાયા છે. આ બધા દ્વારે અહિયાં પ્રત્યેક શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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