SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ.१० सू०४ नैरयिकाणां द्वादशादिसमर्जितत्वम् १७९ द्वादशसमर्जिता न वा-नोद्वादशसमर्जिता न वा द्वादशकेन च नो द्वादशकेन ज समर्जिताः किन्तु द्वादशकैः समर्जिताः४, द्वादशश्च नो द्वादशकेन च समर्जिताः ५, भवन्तीति भावः । 'बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया' द्वीन्द्रिया यावत् सिद्धायथा नैरयिकाः, यथा नारकाणां द्वादशादिसमर्जितत्वविषयकाः पश्चापि विकल्पा भवन्ति तथा द्वीन्द्रियजीवादारभ्य सिद्धपर्यन्तेष्वपि द्वादशादिसमर्जितत्वविषयका: पश्चापि विकल्पाः समुन्नेतव्या इति । ___ अथै तेषामल्पबहुत्वमतिदेशेनाह-एएसि णं भंते ! इत्यादि,। 'एएसिणं भंते ! नेरइयाणं' एतेषां खलु भदन्त ! नैरयिकाणाम् 'बारससमज्जियाणं' द्वादशसमर्जितानां द्वादशसमर्जितादिपञ्चविकल्पविकल्पितानाम्, तथा 'सव्वेसिं' वनस्पतिकायिक जो जीव हैं, वे भी द्वादशसमर्जित नहीं हैं, नो बादशसमर्जित नहीं हैं, और न एक द्वादशक से और एक नो द्वादशक से समर्जित हैं । किन्तु वे अनेक द्वादशों से सर्जित हैं ४ और अनेकद्वादशों से एवं एक नो द्वादश से समर्जित हैं। 'बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरड्या' द्वीन्द्रिय यावत् सिद्ध ये नारकों के जैसे हैं- अर्थात जिस प्रकार नारकों में द्वादशादि समर्जित विषयक पांचों विकल्प होते हैं, उसी प्रकार ही हीन्द्रिय जीव से लेकर सिद्धपर्यन्त जीवों में भी बाद. शादि समर्जित विषयक पांचों विकल्प होते हैं ऐसा जानना चाहिये। अब सूत्रकार इन जीवों के द्वादशादि समर्जित विकल्पों में अल्प बहुत्व का कथन करते हैं-'एएसिणं भंते ! नेरइयाणं-वारससमजियाणं' द्वादशसमर्जित आदि विकल्पों वाले इन नैरयिकों का तथा 'सव्वेसिं' પણ દ્વાદશ સમજીત હોતા નથી. ને દ્વાદશ સમત હોતા નથી અને એક દ્વાદશથી અને એક ને દ્વાદશથી પણ સમજીત હોતા નથી. પરંતુ तसा मनवाशाथी समताय छे. 'बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया' બેઇદ્રિય યાવત્ સિદ્ધ નારકોની જેમ જ છે. અર્થાત્ જે રીતે નારકામાં દ્વાદશ વિગેરેથી સમજીત સંબંધી પાંચ વિકલ્પો થાય છે એજ રીતે પ્રક્રિયાથી લઈને સિદ્ધ પર્યાના માં પણ દ્વાદશાદિ સમજીત વિષયના પાંચે ભંગ થાય છે. તેમ સમજવું. હવે સૂત્રકાર આ જેના દ્વાદશાદિ સમજીત વિકલ્પમાં અલ્પ બહુ५३नु थन ४२ छे. 'एएसि ण भंते नेरइयाणं बारससमज्जियाणं' वाश समत विगैरे विपापा । ना२४ीयोन तथा सम्वेसि' मा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy