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________________ १७२ भगवतीसूत्रे समर्जितत्वे कारणज्ञानाय पुनः गौतमः पृच्छति-से केणटेणं इत्यादि, ‘से केणटेणं जाव समज्जिया वि' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते द्वादशसमर्जिता. १, नो द्वादशसमर्जिताः२, द्वादशकेन च नो द्वादशकेन च समर्जिताः३, द्वादशकैः समजिताः ४, द्वादशकैश्च नो द्वादशकेन व समर्जिताः५ इति, अत्र यावत्पदेन भदन्त । इत्यारभ्य द्वादशकैश्च नो द्वादशकेन च इत्यन्तस्य ग्रहणं भवतीति प्रश्नः । भगवा नाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे गं नेरइया' ये खलु नैरयिकाः 'बारसरणं पवेसणएणं पविसति' द्वादशकेन भवेशनकेन प्रविशन्ति, यतो नारका एकसमये द्वादशसंख्ययाऽनु पविशन्ति 'ते णं नेरइया बारससमज्जिया' ते खलु हैं५ यहां यावत्पद से द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ विकल्पो का संग्रह हुआ है। अब गौतम द्वादश आदि अवस्था में समर्जित पने के कारण को जानने के अभिप्राय से ऐसा पूछते हैं-से केणटेणं जाव समज्जिया वि' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नारक जीव द्वादश समर्जित ? नो द्वादश समर्जित२, एक द्वादशक से और एक नो द्वादशक से समर्जित३ अनेक द्वादशों से समर्जित४ और अनेक द्वादशों से एवं एक नोद्वादशक से समर्जित होते हैं ? यहां यावत्पद से 'भदन्त' यहां से लगाकर 'बादशकैश्च नो बादशकेन च' यहां तक के इन्हीं समस्त पदों का संग्रह हुआ है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! जे णं नेरइया' जो नैरपिक 'बारसएणं पवेसणएणं पविसंति' द्वादशक प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं -अर्थात् एक समय में वे १२ की પણ સમજીત હોય છે. પ, અહિં યાવત્પદથી બીજા ત્રીજા અને ચોથા વિકલપને સંગ્રહ થયો છે. હવે ગૌતમસ્વામી દ્વાદશ વિગેરે અવસ્થા માં સમજીતપણાનું કારણ वानी २४ाथी प्रभुने से पूछे छे -से केणट्रेणं जाव समन्जिया वि.' હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે-નારક જીવે દ્વાદશ સમજીત ૧ ને દ્વાદશ સમજીંતર, એક દ્વાદશથી અને એક ને દ્વાદશથી સમ ત૩ અનેક દ્વાદશથી સમજીત૪, અને અનેક દ્વાદશથી અને એક ને દ્વાદશથી પણ સમજીત હોય છે. ૫, અહિયાં યાવત્પદથી “ભદન્ત’ એ શબ્દથી asn'द्वादशकैश्च नो द्वादशकेन च' मा सुधीन। तमाम पहानी सबस यो छ. ग. प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४७ छ -'गोयमा ! जे णं नेरइया' रे ना२४ीये! 'बारसएणं पवेसणएणं पविसंति' प्रवेशनी प्रवेश ४रे छ, मत समयमा मारनी सयामi 4-नयाय छे. ते ण नेरइया बारख શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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