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________________ प्रमेयवन्द्रिका टीका श०१८ उ०५ सू०२ असुरकुमाराणां भिन्नत्वे कारणनि० ४३ एवं तत्कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा हे गौतम ! 'नेरइया दुविहा पन्नत्ता' नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तेषां द्विविधत्व मेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-मायिमिच्छादिहि उववन्नगा य अमायि सम्पदिहिउववन्नगा य' मायिमिथ्यादृष्टथुपपन्नकाश्च अमायिसम्यग्दृत्युपपन्नकाश्च 'तत्य णं जे से मायोमिच्छादिविउववन्नए नेरइए' तत्र खलु यः सामायिमिथ्यादृष्टयुपपत्रको नैरयिकः ‘से णं महाकम्मतराए चेव' स खलु महाकर्मतरएव 'जाव महावे यणतराए चे' यावन्महावेदनतरएव अत्र यावत्पदात्महाकर्मतरएव महाक्रियतरएव इति संग्राह्यम् 'तस्थ णं जे सेअमायिसम्मदिटिउपवन्नर नेरइए' तत्र खलु यः सः अमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नो नैरयिकः 'से णं अप्पकम्मतराए चेव' स खलु अल्पकर्मतर एव 'जाव अप्पवेयण ही होता है । 'से कहमेय भंते ! एवं ' सो ऐसा होने में कारण क्या है ? उत्तर में प्रभु ने कहा 'गोयमा! नेरच्या दुविहा पन्नता' हे गौतम | नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। 'तं जहा माथिमिच्छदिट्ठी उपय नगा य अमायिसम्मदिहिउववन्नगा य' जैसे एक मायी मिथ्याष्टिरूप से उत्पन्न हुए और दूसरे अमायी सम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न हुए 'तस्थ णं जे से माथिमिच्छदिट्टि उवधनए नेरइए से णं महकम्मतराए चेव, जाव महावेयणतराए चेव' इनमें जो मायी मिथ्याष्टिरूप से उत्पन्न हुए नैरयिक हैं वे महाकर्मतर ही होते हैं। यावत् महावेदनतर ही होते हैं । तथा 'तस्थ णं जे से अमायिसम्मादिहिउववन्नए नेरइए' जो इनमें अमायी सम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न हुआ। नरयिक है । 'सेणं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेषणतराए चेव' वह अल्पकर्मतर ही होता है । यावत् अल्पवेदनतर ही होता है। यहां पर भी यावत्पद से "गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता” 8 गौतम नयि रना हा छ. "तं जहा-मायी मिच्छदिदि उबवण्णगा य अमायिसम्मदिद्विउववनगा य" તે પૈકી એક માયી મિથ્યાદષ્ટિ પણાથી ઉત્પન્ન થયેલ છે. અને બીજે અમાથી सभ्यष्टिपाथी उत्पन्न ये छे. "तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिदिउववत्रए नेरइए से णं महकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव" मा २ નરયિક જીવ માયી મિથ્યાદષ્ટિપણાથી ઉત્પન્ન થયેલ છે, તે મહાકર્મવાળે જ डाय छे. यावत् भावहनवाणे डाय छे. तथा "तत्थ ण जे से अमायिसम्म. दिदिउववन्नए नेरइए" तमा २ समाया सभ्यपूटि३५थी 64 थयेस नै२यि: छे, “से णं अपकम्मतराए वेव जाव अप्पवेयणतराए घेव" ते ५ કમવાળા જ હોય છે. યાવત્ અલ્પવેદનવાળા જ હોય છે. અ૫ કિયાવાળે હેય છે. અને અલ્પઆત્મવવાળો હોય છે. કહેવાને ભાવ એ છે કે હું ગામ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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