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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०२ सू०१ आकाशस्वरूपनिरूपणम् ४९९ देसा' लोकाकाशः खलु भदन्त ! किं जीवा जीवदेशाः, 'एवं जहा बितीयसए अस्थिउद्देसए तहचेव इहवि भाणिय' एवं यथा द्वितीयशतके दशमे अस्त्युद्दे. शके तथैव इहापि भणितव्यम् ‘णवरं अभिलावो' नवरम् अभिलाप:-नवरम् विशेषः केवलमेतावानेव यत्-तत्र-द्वितीयशतके लोयं चेव फुसित्ता णं चिटई' इत्यस्य स्थाने-'लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिटई' इत्येवममिलापो वक्तव्यः किय. पर्यन्तमित्याह-'जाव' यावत् 'धम्मत्यिकाए णं' इत्यादि सूत्रमायाति तावत्पर्यन्तं वक्तव्यम् । अत्र यावत्पदेन 'अलोयागासे णं भंते' इत्यादि अलोकाकाशस्त्रं संपूर्ण पठनीयम् , अस्य व्याख्याऽपि तत्रैव द्रष्टव्येति । द्रव्य आकाश के जो ये भेद किये गये हैं वे आधेयभूत द्रव्यों के वहीं नहीं पाये जाने की अपेक्षा से ही किये गये हैं अर्थात जीवादिक द्रव्य आकाश के जितने भाग में पाये जाते हैं वह भाग लोकाकाश है और इससे अतिरिक्त भाग अलोकाकाश है। 'लोयागासे णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा?' हे भदन्त ! लोकाकाश क्या अनेक जीव रूप हैं ? या जीव देशरूप है ? इत्यादि प्रश्न का उत्तर एवं जहा वित्तियसए अस्थि उद्देसे तह चेव इह वि भाणियच' हे गौतम ! द्वितीयशतकके १० वे अस्ति उद्देशक में कहे गये अनुसार है 'नवरं अभिलावो' परन्तु विशेषता केवल इतनी सी है कि वहां वितीयशतक में 'लोयंचेच फुसित्ता णं चिट्ठ' ऐसा जो अभिलाप है उस अभिलाप के स्थान में 'लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिट्टई' यहां ऐसा अभिलाप कहना चाहिये और यह अभिलोप 'जाव धम्मस्थिकाए णं' इस सूत्र पर्यन्त જવ વિગેરે દ્રવ્ય આકાશના જેટલા ભાગમાં મળે છે, તે ભાગને કાકાશ
छ. 'लोयागासे गं भंते ! कि जीवा जीवदेसा' अशा અનેક જીવ રૂપ છે? અથવા જીવ દેશ રૂપ છે? વિગેરે અને ઉત્તર આપતા प्रभु ४ छ -'एवं जहा बितिग्रसए अस्थि उद्देसे तह चेवं इहवि भाणियवं' ॐ गौतम भी शतना १० समां मस्तिदेशामा प्रमाणे . 'नवरं अभिलावो' पर विशेषता उ4 मेवी छ । त्यो भी शतभा 'लोयं चेव फुसित्ता णं चिदुइ' २२ प्रमाना २ मिसा५ छे, मलिन स्थान 'लोयं चेव ओगाहित्ता गं चिट्ठइ' मा प्रमाणुन मलिता५ ।
स. मन मा मलिता५ 'जाव धम्मस्थिकाए गं' मा सूत्र सुधी । २. महियां यावत् ५४थी मे मतायु छ ?-अलोयागासे गं भंते त्या
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩