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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०५ सू०१ भास्वरजीवविशेषदेवानां निरूपणम् ३३ ___टीका-'दो मंते !' द्वौ भदन्त ! 'असुरकुमारा' असुरकुमारौं 'एगंसि असुरकुमारावासंसि' एकस्मिन् अमुरकुमारावासे 'अमुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना' असुरकुमारदेवतया उत्पन्नौ 'तत्थ णे एगे असुरकुमारे देवे' तत्र खलु-तस्मिन् देवकुमारावासे एकोऽसुरकुमारो देवः 'पासाईए प्रासादीयः प्रसादो-मनः प्रसन्नता प्रयोजनं यस्य स तथाभूतः प्रसन्नताजनकगुणयुक्तः, यद्दर्शनेन मनः प्रसन्नतामेति इत्यर्थः ‘दंसणिज्जे' दर्शनीयः२-क्षणे क्षणे द्रष्टुं योग्य इत्यर्थः अभिरूवे'३ अभिरूपः-अभिमतम्-अनुकूलं रूपं यस्य स तथाभूतः मनोऽनुकूलरूपवान् इत्यर्थः 'पडिरूवे'४ प्रतिरूपः प्रतिरूपम् असाधारणं रूपं यस्य स तथाभूतः सर्वथा दर्शक जनमनोहारी-इत्यर्थः। 'एगे असुरकुमारे देवे से णं नो पासाईए' एकोऽसुरकही जावेगी इस उद्देशे का आदि सूत्र 'दो भते' इत्यादि है। _ 'दो भते असुरकुमारा एर्गसि असुरकुमारावासंसि' इत्यादि । __टीकार्थ-'दो भंते असुरकुमारा' हे भदन्त ! दो अप्रकुमार 'एगसि असुरकुमारावासंसि' एकही असुरकुमारावास में 'असुरकुमार देवताए उववन्ना' असुरकुमारदेवरूप से उत्पन्न हुए 'तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे' इनमें एक असुरकुमार देव वहां 'पासाइए' प्रसन्नताजनक गुण से युक्त हुआ जिसे देखकर मन प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है ऐसा हुआ। 'दंसणिज्जे' दर्शनीय हुआ । क्षण २ में जो देखने के लायक हो ऐसा हुआ। 'अभिरूवे' अनुकूल रूपवाला हुआ मन के अनुकूल जिसका रूप है ऐसा हुआ। 'पडिरूवे' असाधारण रूपवाला हुआ-सर्वथा दर्शकजनों के मनको हरनेवाला है रूप जिसका ऐसा हुआ। રૂપ જીવ વિશેષ અસુરકુમાર વિગેરે દેના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવશે. આ ઉદ્દેશાનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે.
"दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारा !' त्यादि
टी:--" दो भंते असुरकुमारा " ३ मन् में असुरमा। “एगंसि असुरकुमारावासंसि" से ४ असु२४मा२।१।समा "अनुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना" मसु२शुमार हेवपणाथी उत्पन्न यया हाय "तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे" तभी मे ससुमार व या "पासाइए' प्रसन्नता थाय छे. मात्रे ने न मन प्रसन्न थाय तेवो डोय छे. "दैणिज्जे" ६शनीय डाय छे. अर्थात् क्षक्ष शुमान य२५ डाय तवा मन छे. "अभिरुवे" भनने मनु ने छे. पडिरूवे" असाधा२६५ ३५वाणी मने छ. मर्यात ४08बनाना भनने आन SMना२ मन छे. “एगे असुरकुमारे देवे से गं नो
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩