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भगवती सूत्रे
इत्यर्थे तु धान्यविशेषपरत्वम् मण्डपादिपदवत् अर्थद्वयपरत्वं मण्डं पिवतीति विग्रहे मण्डपानकर्तृत्वमर्थः अन्यत्र तु मण्डपो - वितानविशेषस्तद्वत् प्रकृतेऽपीति । 'तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पनता' तत्र खलु ये ते मित्रसरिसवयाः ते त्रिविधाः - त्रिपकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा सहजायया सहवडिया सहपंकीलिया' तद्यथा सहजातकाः सहवर्द्धिताः सहपांशुक्रीडिताः तत्र सहजातकाः - समानकाले जाताः, सहवर्द्धिताः सहैव समानस्थाने समानकाले लालनपालनादिना वर्द्धिताः सहैव पांशुभिः धूलिभिः क्रीडिताचेति । 'ते
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परक होता है और 'सर्षपक' इस अर्थ में सरिसव पद धान्यविशेष परक होता है इस प्रकार यह पद मण्डपादि पद के जैसे अर्थ द्वय परक है 'मण्डं पिबति इति मण्डप' जब मण्डप पद का ऐसा विग्रह किया जाता है तब यह पद मांड को पीनेवाले का बोधक होता है और जब ऐसा विग्रह नहीं किया जाता है तब यह मण्डप वितान विशेष का बोधक होता है इसी प्रकार प्रकृत में भी 'सरिसव' पद द्वयर्थक है ऐसा जानना चाहिये इनमें जो 'मित्तसरिसवया०' जब यह शब्द मित्र अर्थ परक गृहीत होता है तब वे मित्र सरिसव ३ प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहा सहजायया ० ' जैसे सहजातक मित्र, जो समान समय में उत्पन्न हुए होते हैं वे सहबर्द्धित - साथ २ एक स्थान में एक काल में जो लालनपालन आदि करके बड़े किये गये होते हैं वे और सहपांशुक्रीडित साथ २
' એ અર્થમાં ‘રિસવ' પદ્મ ધાન્ય વિશેષતુ વાચક છે. આ રીતે આ 'सरिसव' पढ भएडयाहि पहनी प्रेम मे अर्थवाया है. 'मण्डं पिबति' ' इति मंडप' भडप पहने न्यारे या रीते विग्रह वामां आवे छे, त्यारे मा પદ માંડ–ચાખાના ઓસામણને પીવાવાળા એ અર્થનું એધક છે, અને જ્યારે એ પ્રમાણેના વિગ્રહ કરવામાં ન આવે ત્યારે મંડપ' માંડવા એ અના એધ કરાવે છે. એજ રીતે આ સરિસવ પદ દ્વઅર્થી છે. તેમ સમજવુ‘ तेभां ने 'मित्तसरिस्रवया०' न्यारे मा अर्थ मित्र अर्थवाणु पह श्रद्धलु कुशय छे, त्यारे ते मित्र 'सरिसव' त्रयु प्रहारना हेवामां आवे छे. 'तंजहा सहजायया०' प्रेम 3 सहलता मित्र के समान-सरमा समयभां उत्पन्न थया હાય છે, તે, ૧ સહતિ-એક સ્થાનમાં એક સાથે, એક કાળે જેને લાલન चाहान विगेरे पुरीने भोटा वामां आवे छे ते, २ भने 'सहपांशुकोडिताः' એક સાથે ધુળમાં જે રમેલા હોય છે તે, ૩ આવા આ ત્રણ પ્રકારના
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩