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भगवती सूत्रे क्रोधमानमायालोभाख्याः 'त जहा कसायपदं निरवसेस भाणियन्त्र' तद्यथा कषायपदं निरवशेषं भणितव्यम् कषायपदं प्रज्ञापनासूत्रस्य चतुर्दशं पदं तत् सर्वमह वक्तव्यम् तच्चैत्रम् 'कोडकसाए माणकसाए, मायाकसाए लोभकसाए' इत्यादि । arasarat मानकषायो मायाकषायो लोभकषायश्चेत्यादि । कियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनासूत्रस्य चतुर्दशं पदमिह वक्तव्यं तत्राह - 'जाव निज्जरिरसं ते जाव लोभेणं' यावत् निर्जरिष्यन्ति अष्टकर्ममकृतीः यावत् लोभेन एतत्पर्यन्तमेव प्रज्ञापनासूत्रस्य चतुदेशं पदं वक्तव्यम् तत्र - पूर्वं कषायाणां चतुष्प्रकारत्वम् १ | कषायाणामात्मप्रतिष्ठितादि प्रकारचतुष्कम् २, कषायाणामुत्पत्तिस्थानचतुष्कम् ३, कषायाणाम् अनन्ता नुबन्ध्यादि प्रकारचतुष्टयम् ४, पुनः कषायाणाम् - आभोग निर्वर्तितादिपकार और वे क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । 'तं जहा कसायपदं निरवसेसं भाणियन्वं' प्रज्ञापना सूत्र का चौदहवाँ पद जो कषायपद है वह यहां सर्वरूप से कह लेना चाहिये वह इस प्रकार से है- 'केहिकसाए, मानकसाए, मायाकसाए, लाभकसाए' इत्यादि क्रोधकषाय, मानकषाय मायाकषाय और लाभकषाय इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र का यह चौदहवां कषाय पद यहां कहां तक का कहने के लिये ग्रहण करना चाहिये तो इसके लिये कहा गया है- 'जाव निज्जरिस्सति जाव लोभेणं' यावत् लोभ के वेदन द्वारा आठ कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करेंगे यहां तक का वह पद ग्रहण करना चाहिये वहाँ पहिले कषायों के चार प्रकार कहे हैं कषायों के आत्मप्रतिष्ठित आदि चार प्रकार कहे हैं कषायों के चार उत्पत्तिस्थान कहे हैं कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकार कहे हैं पुनः कषायों के आभोगनिवर्तित आदि चार प्रकार कहे हैं । जीव से लेकर वैमानिक उषाय छे.
" जहा कायपदं निरवसेसं भाणियव्वं" अज्ञायना सूत्रनुं थे ચૌદમુ' પદ કષાય પદ છે તે સંપૂર્ણ રીતે અહીં કડ્ડી લેવું. તે આ પ્રમાણે छे. "कोहक खाए, माणकखाए, मायाकसाए, लोभकसाए, इत्यादि षडषाय, भान કષાય, માયાકષાય અને લાભકષાય ઇત્યાદિ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું આ ચૌદમું કષાય यह मडियां सुधीनं श्रणु उरवानुं छे ते जताववा अधु छे - "जाव निज्जरिस्संति जाव लोभेणं" यावत् बोलना वेहनथी माठ उभअष्मृतियोनी નિરા કરશે આ કથન સુધીતું તે પદ અહિયાં ગ્રહણુ કરવુ.. ત્યાં પહેલા ચાર પ્રકારા કહ્યા છે, કષાયાના આત્મપ્રતિષ્ઠિત વિગેરે ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. કષાયાના ચાર ઉત્પત્તિ સ્થાના કહ્યા છે. કષાયેાના અનન્તાનુંધી વિગેર ચાર પ્રકાર કહ્યા છે. ફરીથી ક્રુષાયાના આભાગ નિર્તિત વિગેરે ચાર
પ્રકાર
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩