________________
१३०
भगवतीसने समीपे वा स्थितो भगवन्तं विविधया पर्युपासनया कायिक्यादिरूपया पर्युपास्ते इत्यर्थः 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः मनुकस्य विनयेन पर्युपासनानन्तरं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः 'मदुयस्स समणोवासगस्स तीसे य जार परिसा पडिगया । मददुकाय श्रमणोपासकाय तस्यै च यावत् परिषत् प्रतिगता, भगवता धर्मकथा कथिता मद्रुकमुद्दि तथा परिषदं चोद्दिश्य, तदनन्तरं भगवतो वन्दनादिकं कृत्वा परिषत् प्रतिगतेति, अत्र यावत्पदेन 'महतिमहालयाए' इत्यारभ्य परिसा' इत्यन्तः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः 'तएणं मददुए समणोवा सए' ततः खलु मद्रुकः श्रमणोपासकः 'समणस्स भगवो महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जाव निसम्म हट्टतुट्टे पसिणाई पुच्छइ' यावत् निशम्य उनके समक्ष अपने उचित स्थान पर बैठ गया और वहीं से वह त्रिविध पर्युपासना से कायिक, वाचिक और मानसिक पयुपासना से-उनकी पयुपासना करने लगा। 'तए णं समणे भगवं महावीरे' इसके बाद श्रमण भगवान महावीर ने 'मयस्स समणोवासगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया' श्रमणोपासक मद्रुक के लिये और उस परिषदा के के लिये धर्मकथा कही, इस कथिन धर्मकथा को सुनकर और भगवान् को वन्दना आदि कर परिषदा विसर्जित हो गई यहां यावत्पद से 'महतिमहालयाए' से लेकर परिस' यहाँ तक का पाठ सब गृहीत हुआ है। 'तए णं मद्दुए समणोवास?' इसके अनन्तर श्रमणोपासक मद्रुक प्रभु से धर्मकथा सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट होते हुए उनसे प्रश्नों को पूछा यही बान 'समणस्स भगव भो महावीरस्स जाव निस्सम्म हतु?पसिगाई पुच्छ।' इस सूत्रपाठ द्वारा व्यक्त की जाव पज्जुवासइ" पहना नमः४२ रीन पछी भगवाननी सभापमा पाताना ઉચિત સ્થાને બેસી ગયે અને ત્યાંથી જ કાયિક, વાચિક, અને માનસિક ५युपासनाथी तमानी ५युपासना ४२१॥ साये.. “तए णं समणे भगवं महावीरे" तपछी श्रम समपान मार स्वामी "मयस्स समणोवासगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया" श्रमास भरने तथा त्यां ही थये ५/२५हान ધર્મકથા કહી. તે ધર્મકથાને સાંભળીને અને ભગવાનને વંદના નમસ્કાર કરીને परिषः पातपाताने स्थणे पाछी ७. मडिया यात् ५४थी "महइमहालयाए" थी बन "परिसा" मही सुधीन। ५।४ अ ४२॥यो छ. "तएणं मद्दुए समणोवासर" ते ५०ी श्रमाणे ५.५ भद्र प्रमुनी पासेथी यम था सामान અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને હૃષ્ટતુષ્ટ થઈને પ્રભુને પ્રશ્ન પૂછળ્યા. આજ पात "समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव निम्म्म हद्वतुठे परिणाइं पुच्छई"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩