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________________ भगवतीसूत्रे ज्ञानस्यावश्यंभावेन अचरमः, सिद्धस्तु अक्षीणज्ञानभाव ए। भवतीत्यतोऽचरमः शेषास्तु येषां ज्ञानसहितनारकत्वादीनां पुनः प्राप्तेरसंभवा त्ते चरमाः एतद्भिन्ना अचरमाः, 'सव्वस्थ' इति, सर्वत्र सर्वेषु जीवादिसिद्धपर्यन्तपदेषु एकेन्द्रियवर्जितेषु सम्यग्दृष्टिवद्विज्ञेयम् इति । ज्ञानभेदानाश्रित्याह-'आमिनिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी जहा आहारओ' आभिनिबोधिकज्ञानी यावन्मनःपर्यवज्ञानी यथा आहारकः, अत्र यावलदेन अवधिश्रुतज्ञानयोः सङ्ग्रहः, आभिनि. बोधिकादि ज्ञानवान् आहारकवदेव ज्ञातव्यः स्याच्चरमः स्यादचरमः, तत्र आमिनिबोधिकादिज्ञानकेवलज्ञानमाप्त्या य: पुनरपि न प्राप्स्यति स चरमः, एतद्विन्नोऽचरमः । 'नवरं जस्स जं अत्थि' नवरं यस्य यदस्ति, यस्य-जीवनारभी पुनः उस ज्ञान की अवश्य प्राप्ति हो जाती है। इससे वह इस द्वार में अचरम हैं । तथा सिद्ध तो अक्षीण ज्ञान भाववाछे ही होते हैंइससे वे अवरम हैं । तथा जिन ज्ञान सहित नारकत्वादिकों को पुनः ज्ञान सहितनारकत्वादिक की प्राप्ति नहीं है वे चरम हैं और इससे जो भिन्न है-वे अचरम हैं। 'सम्बत्य' जीव से लेकर सिद्ध पर्यन्त पदों में एकेन्द्रिय को छोडकर सम्यग्दृष्टि के जैसा जानना चाहिये । 'आभिनियोहियनाणी जाव मगपज्जवणाणी जहा आहारओ' आभिनियोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यवज्ञानी आहारक के जैसे हैं-यहां यावत् पदसे श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानका ग्रहण किया गया है जो आभिनियोधिकज्ञानी यावत् मनःपर्यवज्ञानी आभिनियोधक आदि ज्ञान को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने से पुनः प्राप्त नहीं करेगा वह चरम है और इससे भिन्न वह अचरम है । 'नवरं जस्स जं अस्थि' जिस થવા છતાં પણ ફરીથી તેને તે જ્ઞાનની અવશ્ય પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી આ દ્વારમાં તે અચરમ છે. અને સિદ્ધ તે અક્ષીણ શાનવાળા જ હોય છે. તેથી તેઓ અચરમ છે. જે જ્ઞાનવાળા નારકાદિકને ફરીથી જ્ઞાન સહિત નારકત્વાદિકની પ્રાપ્તિ થતી નથી તેઓ ચરમ છે. અને તેનાથી ભિન્ન હોય તે અચરમ छ, 'सव्वत्थ' थी माला सिद्ध पय-तना ५मा मेन्द्रियान छ। सभ्य५६0241 प्रमाणे समपा.'आमिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवणाणी जहा आहारओ' मालिनियाधिशानी यापत् मनः पयज्ञानी मालिनिमाधि વગેરે જ્ઞાનીને-કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ જવાથી તેને ફરીથી પ્રાપ્ત કરશે नही थी त य२म छे. अन तनाथी मिन्न भय२म छे. 'नवर' जस्स जं શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨.
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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