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________________ भगवतीसूत्र आहारकसूत्रापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह-"नवरं जस्स जो वेदो अस्थि" नवरं केवलमेतदेवलक्षण्यं यद् जीवादिदण्ड चिन्तायां यस्य नारकादे यौँ वेदो नपुं. सकादिरस्ति तस्य स एव वेदो वक्तव्य इति। “अवेदओ एगत्तपुहुत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी" अवेदक एकत्वपृथक्त्वेन त्रिष्वपि पदेषु यथा अपायी, अवेदको यथा अकषायी तथा वक्तव्य स्तत्र त्रिष्वपि पदेषु जीवमनुष्यसिद्ध लक्षणेषु, तत्र जीवमनुष्यपदयोः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथमः, अवेदकत्वस्य प्रथमेतरलामापेक्षया, सिद्धस्तु प्रथमः, नो अप्रथमः अवेदकत्वयुक्तसिद्धत्वपर्यायस्य पूर्व कुत्रापि अमाप्तत्वादिति । इति द्वादशं वेदद्वारम् ॥१२॥ के जैसा अप्रथम ही है, प्रथम नहीं है। क्योंकि अनादिसंसार में जीव को वेदकी प्राप्ति अनादिकाल से ही है। 'नवरं' आहारक सूत्रोक्त कथन की अपेक्षा इसमें केवल यही विशेषता है । 'जस्स जो वेदो अत्थि' कि जीवादि दण्डक के विचार में जिस नारकादि जीव को जो वेद होता है वहीं वेद उसको कहना चाहिये । इस प्रकार उस विवक्षित बेद की अपेक्षा उसमें अप्रथमता का कथन समझना चाहिये । 'अबेदओ एगत्तपुहुत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी' तथा जीव, मनुष्य सिद्ध, इन तीन पदों में से जीवपद में और मनुष्यपदमें अवेदी कदीचित् प्रथम भी होता है, और कदाचित् अप्रथम भी होता है, अवेदन प्रथमवार मिलने की अपेक्षा प्रथम है और द्वितीयादि वार मिलने पर 'अप्रथम है। इसी कथन की अपेक्षा लेकर यहां प्रथमता और अप्रथमता का कथन किया गया है। तथा जो सिद्ध जीव हैं वे થમ જ છે. પ્રથમ નથી. કેમકે અનાદિસંસારમાં જીવને વેદની પ્રાપ્તિ અના દિકાળથી જ છે ધનવાં આહારક સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે તેઓમાં એ જ વિશેષતા छ । 'जस्स जो वेदो अत्थि' 33 वियारमा २ ना२३ अपने જે વેદ થાય છે, તે જ વેદ તેને કહે. તે રીતે તે વિવક્ષિત વેદની અપેसाथी तभा मप्रथमता अभी . 'अवेदओ एगत्तपुहुत्ते ण तिसु वि पदेसु जहा अकसायी' तभ७१, मनुष्य, भने सिद्ध थे त्रय पहाभाना १ ५४मां અને મનુષ્ય પદમાં વેદ કે ઈવાર પ્રથમ પણ હોય છે, અને કદાચિત્ અપ્રથમ પણ હોય છે. અદકપણું પહેલી વાર મળવાની અપેક્ષાથી પ્રથમ છે. અને બીજી ત્રીજીવાર મળવાની અપેક્ષાએ પ્રથમ છે. આ કથનને આધારે અહિંયાં પ્રથમતા અને અપ્રથમતાનું કથન કર્યું છે. તથા જે સિદ્ધ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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