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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे लेश्याद्वारम् ५६३ अथ पञ्चमं लेश्याद्वारमाह-'सलेस्से गं भंते !' इत्यादि । 'सलेस्से गंभंते ! पुच्छा' सलेश्यः खलु भदन्त ! पृच्छा हे भदन्त ! सलेश्यो जीवः सलेश्यभावेन किं प्रथमः अप्रथमो वेति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जहा आहारए' यथा आहारकः आहारसूत्रवदिहापि व्याख्यानं ज्ञातव्यम् तथाहि-हे गौतम ! सलेश्यो जीवः स लेश्यभावेन न प्रथमः किन्तु अपथमः एव अनादौ अस्मिन् संसारे लेश्याभावस्य जीवेन अनन्तशो लब्धत्वात् अतः सलेश्यो जीवो न प्रथमो भवति, अपितु अप्रथम एवेतिभावः । 'एवं पुहुत्तेण वि' एवं पृथक्त्वेनापि यथा एकवचनमाश्रित्य सलेश्य नीवस्य सलेश्यभावेन प्रथमत्वं न किन्तु अपथमत्वमेव, तथा बहुवचनमाश्रित्यापि जीवानां संलेश्य मावेन न प्रथमत्वम् अपितु अप्रथमत्वमेवेतिभावः ___ पांचवें इस लेश्याद्वार में गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-'सले. स्सेणं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! लेश्या सहित जीव सलेश्यभाव की अपेक्षा से क्या प्रथम है या अप्रथम है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! जहा आहारए' जैसा आहार सूत्र का व्याख्यान किया गया है-वैसा ही व्याख्यान यहां पर भी जानना चाहिये-अर्थात् सलेक्ष्य जीव सलेश्य भावसे प्रथम नहीं है किन्तु अप्रथम ही है। कारण कि जीवने इस अनादि संसार में लेश्यायुक्त भाव को अनन्तवार प्राप्त किया है। इसलिये सलेश्यजीव प्रथम नहीं है अपितु अप्रथम ही है। 'एवं पुहु. त्तेणवि' जिस प्रकार एकवचन को आश्रित करके सलेश्यजीव के सलेश्य भाव की अपेक्षा से अप्रथमता कही गई है, उसी प्रकार से बहुवचन को आश्रित करके भी जीवों के सलेश्यभाव की अपेक्षा से अप्रथमता पायभु श्याद्वारપાંચમાં આ લેહ્યાદ્વારમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે है--"सलेस्से णं भाते ! पुच्छा" 3 मान अश्यापार १ सवेश्या साथी श' प्रथम छ ? , मप्रथम छ? मान तरमा सुमे यु , "गोयमा! जहा आहारए" माहा२४ सूत्रना व्यायानभा के प्रमाणे वामां माव्यु છે. એજ પ્રમાણેનું વ્યાખ્યાન અહિયાં પણ સમજવું. અર્થાત્ સલેશ્ય આવે સલેશ્ય ભાવથી પ્રથમ નથી પરંતુ અપ્રથમ જ છે. કારણ કે જીવે આ અનાદિ સંસારમાં વેશ્યાવાળા ભાવને અનન્તવાર પ્રાપ્ત કરેલ છે. તેથી सोश्य 4 प्रथम नयी ५५ अप्रथम १ छ "एवं पुत्तेण वि" એકવચનને લઈને જે રીતે સલેશ્ય જીવના સલેશ્યભાવની અપેક્ષાથી અપ્રથમપણ કહ્યું છે એજ રીતે બહુવચનને આશ્રય કરીને પણ જીવોના સલેશ્યા ભાવની અપેક્ષાએ પ્રથમપણું જ છે, પ્રથમપણું નથી. તેમ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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