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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे संशिद्वारनिरूपणम् ५६१ मेव भवति, पृथिव्यादयस्त्वसंझिनः सन्त्येव, तेऽपि असंज्ञिमावेन अप्रथमा एव भवन्ति तेषामनन्तशस्तल्लाभादिति असंज्ञिनां वानव्यन्तरपर्यन्तमेव गतिर्भवति, न ततोऽग्रेऽत एवोक्तम्-'जाव वाणमंतरा' इति उभयनिषेधपदं च जीवमनुष्यसिद्ध ब्वेव लभ्यतेऽत एवाह-'नो सनि नो असन्नी जीवे मणुस्से सिद्धे पढमे नो अपढमे नो संज्ञि नो असंज्ञी जीवो मनुष्यः सिद्धश्च प्रथमो नो अप्रथमः, नो संज्ञिनो-असंज्ञी जीवो मनुष्यः सिद्धश्च नो संझिनो असंज्ञिमावेन प्रथम एव भवति नतु अप्रथमः, नो संज्ञि नो असंज्ञिमावस्य तेषां पूर्वममाप्तत्वादिति जीवमनुष्यसिद्धा. नामेकैकश आलापका यथा-'नो सन्नि नो असन्नी णे भंते ! जीवे नो सन्नी नो क्योंकि असंही जीवों का उत्पादवानव्या तर पर्यंत ही होता है। तथा थोडे समय के लिये इनके असंज्ञीपन रहता हैं । पृथिवी आदिक जीव असंज्ञी ही होते हैं-इसलिये असंज्ञी भावसे अप्रथम ही होते कहे गये हैं। क्योंकि इन्होने अनन्तवार असंज्ञिस्वदशा को प्राप्त किया है। असंज्ञी जीवों की गति वानव्यन्तर तक ही होती है। इसके आगे नहीं। होती इसलिये 'जाव वाणमंतरा' ऐसा कहा गया है। संज्ञी एवं असंज्ञी इन दोनों का निषेध जीव मनुष्य और सिद्ध इनमें ही हो सकता है, इसीलिये 'नो सन्निनो असन्नी जीवे मणुस्से सिद्ध पढमे, नो अपढ़मे' नो संज्ञो नो असंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध ये प्रथम हैं अप्रथम नहीं हैं। तात्पर्य ऐसा है कि नो संज्ञी जीव मनुष्य और सिद्ध नो संज्ञी नो असंज्ञी भाव से प्रथम ही होते हैं अप्रथम नहीं होते हैं। क्योंकि इन्हों के द्वारा पहिले यह नो संज्ञी नो असंज्ञी अवस्था प्राप्त की हुई नहीं होती है। जीव, मनुष्य और सिद्ध इनमें एक एक का आलापक इस प्रकार से है-'नो सन्नी नो असन्नीणं भंते ! जीवे नो मनि नो असनि भावेणं किं તેની આગળ હોતી નથી તેથી જીવ વન વ્યતરા એ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. સંજ્ઞી અને અસંજ્ઞી એ બંનેને નિષેધ જીવ મનુષ્ય અને सिद्धोमin 25 छ. तथा "नो संन्नि य नो असन्नि य जीवे मणुस्खे सिद्धे पढमे नो अपढमे" नासशीय भने नाम सज्ञीय ७१ मनुष्य भने સિદ્ધ પ્રથમ છે. અપ્રથમ નથી કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ન સંજ્ઞીય અને અસંજ્ઞીય જીવ મનુષ્ય અને સિદ્ધ સંજ્ઞીય અને ભાવથી પ્રથમ જ હોય છે. અપ્રથમ હોતા નથી. કેમકે આ ન સંજ્ઞી અને અસંસીની વ્યવસ્થા તેઓના દ્વારા પહેલા પ્રાપ્ત થએલ હતી નથી. જીવ, મનુષ્ય અને સિદ્ધ તેઓમાં એક એક ને આલાપક આ પ્રમાણે
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨