________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे आहारकद्वारम् ५५३ क्रमेण नारकादारभ्य यावद् वैमानिकजीवानाम् अनाहारक भावेन अप्रथमत्वं ज्ञेय. मिति । 'नेरइए णं भंते !' नैरयिकः खलु भदन्त ! अनाहारकभावेन प्रथमः अपथमो वेति प्रश्नः, भगवानाह-'नेरइए' इत्यादि । एवं 'नेरइए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमें नैरयिको यावद् वैमानिकः नो प्रथमः किन्तु अप्रथमः अत्र यावत्पदेन तियङ्मनुष्यभवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकपर्यन्तश्चतुर्विंशतिदण्डके सर्व संसारिजीवानां संग्रहो भवति तथा च नै रयिकादारभ्य वैमानिकान्तः सर्वोऽपि जीवः अनाहारकभावेन प्रथमो न भवति किन्तु अप्रथम एव भवतीति भावः । 'सिद्ध पढमे नो अपढमे सिद्धः प्रथमः नो अपथमः अनाहारकभावेन सिद्धः प्रथम एव भवति अपथमस्तु न यत इतः पूर्व सिद्धत्व पर्याय सहितानाहारव दस्याजीव इस अवस्था को इस अनादि संसार में अनन्तवार प्राप्त करता आ रहा है। अतः यह अवस्था उसकी अनन्तवार से अनुभूत होने के कारण अप्रथम है। इससे वह संसारी अप्रथम है। इसी प्रकार दण्डकके क्रम से लेकर वैमानिक जीवों में अनाहारक भाव की अपेक्षा अप्र. थमता जाननी चाहिये।
अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि-'नेरहए णं भंते' हे भदन्त ! नैरयिक जीव अनाहारक भाव की अपेक्षा से क्या प्रथम है या अप्रथम है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'नेरइए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमे' हे गौतम नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक के जीव इस अनाहारक भाव की अपेक्षा से सथ ही अप्रथम हैं, यहां यावत् शब्द से तिर्यश्च, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क' इन सब संसारी. जीवों का ग्रहण हुआ है। 'सिद्धे पढमे, नो अपढमे सिद्ध अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम हैं-अप्रथम नहीं हैं। क्योंकि सिद्धपर्याय विशिष्ट પ્રમાણે દંડકના ક્રમથી વૈમાનિક જેમાં અનાહારકભાવની અપેક્ષાથી અપ્રથમતા સમજવી.
गौतम ॥भी नाना समयमा प्रभुने पूछे छ-"नेरइए णं भंते !" ३ सन् नैरयि ७१ मनाडा२४ मा१५४ाथी प्रथम छ ? है
प्रथमछ? तना उत्तरमा प्रभु ४ छ है-"नेहइए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमे" उ गौतम! नैयिाथी मारली. यावत वैमानि सुधीना । આ અનાહારકભાવપણાથી બધાજ અપ્રથમ છે. પ્રથમ નથી અહિયાં યાવત શબ્દથી તિય ચ; મનુષ્ય, ભવનપતિ. વાવ્યતર, તિષિક. આ બધા ससारी । ग्रहण या छ. "सिद्धे पढमे नो अपढमे" अनाडा२४ ભાવપણાથી સિદ્ધ પ્રથમ છે. અપ્રથમ હોતા નથી. કેમ કે સિદ્ધ પર્યાયથી યુક્ત જે અનાહારક છે, તે તેઓએ પહેલી જ વખત પ્રાપ્ત કરી છે. પહેલાથી તે અવસ્થા તેઓને પ્રાપ્ત થયેલ નહોતી. આ કથન એક વચનની
भ० ७०
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨