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भगवतीसूत्रे नाह-गोयमा' हे गौतम ! 'चउबिहा पन्नत्ता' चतुर्विधा प्रज्ञप्ता 'तं जहा' तथा 'नेरइयखेत्तेयणा जाव देववेत्तेयणा' नैरयिकक्षेत्रैजना यावत् देवक्षेत्रैजना यावत्पदेन तिर्यग्मनुष्यजनयोः संग्रहः तथा च नैरयिकक्षेत्रैजना तिर्यग्योनिकक्षेत्रैजना मनुष्यक्षेत्रैजना देवक्षेत्रजनेति चतस्रः एजनाः क्षेत्रीया भवन्तीति । 'से केणटेणं भंते एवं वुचइ नेरइयखेचेयणा' तत् केनार्थेन खलु भदन्त ! एवमु. च्यन्ते नैरपिकक्षेत्रैजना अत्रापि प्रश्नाक्यार्थों ज्ञातव्यः पूर्ववदेवेति, भगवानाह'एवं चे' एवमेव 'नवरं नेरइयखेतेय गा भाणि यया' नवरं केवलं नैरयिकक्षेत्रैजना भणितव्या पूर्वम् नैरयिकादिद्रव्यैजनान्तर्भावेन एजना उक्ता इह तु द्रव्यस्थाने क्षेत्र निवेश्य एजना वक्तव्या, तथाहि-यस्मात् कारणात् नैरयिका इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चउठियहा पन्नत्ता' हे गौतम ! क्षेत्रैजना चार प्रकार की कही गई है 'तं जहा' जैसे 'नेरइयखेत्तेयणा, जाव देवखेत्तयणा' नैरयिकक्षेत्रैजना यावत् तिर्यग्योनिकक्षेत्रैजना, मनुष्य क्षेत्रैजना और देवक्षेत्रैजना 'से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ रायखेत्तयणा' हे भदन्त ! किस कारण से नैरयिक क्षेत्रैजना कहलाती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम! जिस प्रकार से नैरयिकद्रव्यैजना के विषय में पहिले कथन किया गया है उसके जैसा कथन नैरयिकक्षेत्र एजना के विषय में भी जान लेना चाहिये-परन्तु इस कथन में 'नवरं नेरइयखेत्तेयणा भाणियव्या' नैरयिक द्रव्य के स्थान में नैरयिक क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिये, इस प्रकार नैरयिक क्षेत्र का प्रयोग करके इस एजना का कथन किया गया है ऐसा जानना उत्तरमा प्रभु छ है-“गोयमा ! चउव्विहा पण्णता" 3 गौतम । क्षेत्र साना यार १२नी ही छ.-'तं जहा'-ते 40 प्रमाणे छे. "नेरइयखेत्तेयणा, जाव, देवखे तेयणा" नै२४४ क्षेत्र मे ना यावत् तिय योनि क्षेत्र सेना भनुष्य क्षेत्र मेन भने व क्षेत्र सेना “से केणटूठेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयखेत्तेयणा” 8 सावन् ! ३२४४ क्षेत्र मेन ॥ यथा पाच छ १ तना उत्तम प्रभु ४ छ 'एवं चेव" है गौतम ! नै२४४ द्रव्य એજનાના વિષયમાં જે પ્રકારથી પહેલાં કથન કર્યું છે. તે જ પ્રકારનું કથન नै२४४ क्षेत्र सेनाना विषयमा ५ सम से ५२'तु थनमा "नवरं नेरइयखेत्तयणा भाणियया" नै२४४ द्र०यना स्थानमा नै२४४ क्षेत्र शहने। પ્રયોગ કરવો જોઈએ એ રીતે નિરર્થક ક્ષેત્રનો પ્રયોગ કરીને આ એજનાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. તેમ સમજવું આને ભાવાર્થ એ છે કે જે કારણથી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨