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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० १ सू० ४ अधिकरणाधिकरणीनिरूपणम् २९ पराधिकरणी अपि तदुभयाधिकरणी अपि ? भगवानाह-'गोयमा अविरई पडुच्च से तेणटेणं जाव तदुभयाहिगरणी वि' गौतम अविरतिं प्रतीत्य एवमुच्यते यावत् तदुभयाधिकरणी अपि, 'एवं जाव वेमाणिए' एवं यावद्वैमानिकः वैमानिकपर्यन्त जीवेष्वपि आत्माधिकरणीव पराधिकरणित्व तदुभयाधिकरणित्वस्य विचारो विधेयः अविरतेः सर्वत्र समानत्वादिति भावः। अथाधिकरणस्यैव कारणपरूपणायाह'जीवा णं' मित्यादि, 'जीवाणं भंते' जीवानां भदन्त ! 'अधिकरणे किं आयपयोगनियत्तिए परप्पयोगनिबत्तिए तदुभयप्पयोगनिवत्तिए' अधिकरणं किम् आत्मप्रयोगनिर्वतितम् परमयोगनिर्वतितम् , तदुभयमयोगनिर्वतितम् , आत्मनः हैं कि आत्मा आत्माधिकरणी भी है, पराधिकरणी भी है और तदु. भयाधिकरणी भी है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अविरई पडुच्च से तेणडेणं जाव तदुभयाहिगरणी वि' हे गौतम ! मैंने जो ऐसा कहा है कि जीव आत्माधिकरणी, पराधिकरणी और तदुभयाधिः करणी कहा है, वह अधिरति को लेकर कहा है । इसी प्रकार का कथन 'एवं जाव वेमाणियाई' यावत् वैमानिक तक के जीवों में भी आत्माधि. करणत्व पराधिकरणत्व एवं तदुभयाधिकरणत्व के विषय का कथन करना चाहिये। क्योंकि इन सब में अविरति का सद्भाव रहता है। अब अधिकरण के कारण की प्ररूपणा के लिये गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'अधिकरणे किं आयपयोगनिव्वत्तिए, परप्पयोगनिव्वत्तिए, तदुभयप्पयोगनिव्वन्तिए' हे भदन्त ! अधिकरण क्या आत्मप्रयोग निवर्तित होता है ? या पर प्रयोग निर्वतित होता है ? या तदुभयप्रयोग જીવ આમાધિકરણ પણ છે પરાધિકરણ પણ છે. અને તે બંને અધિક२४ाणे ५४ छ ? तेना उत्तम प्रभु , "गोयमा ! अविरई पडुच्च से वेणट्रेणं जाव तदुभयाहिगरणी वि" गौतम ! २ स युं छे है આત્માધિકરણી પરાધિકરણી અને તે બંને અધિકરણવાળે છે. તે અવિરતિને ava Bघुछ मे४ शतनू थन "एवं जाव वेमाणिए" यावत् वैमानि सुधी ૨૪ દંડક જીવેના પણ આત્માધિકરણત્વ, પરાધિકરણત્વ અને તદુભયાધિકરણત્વના વિષયનું કથન કહી લેવું કેમકે એ બધામાં અવિરતીને સદ્ભાવ રહે છે. હવે અધિકરણના કારણેનું નિરૂપણ કરવા માટે ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને से पूछे छे है-" अधिकरणे किं आयपयोगनिव्वत्तिए परम्पयोगनिव्वत्तिए तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिर" भगवन् ! म४ि२६५ मामप्रयोग निवतित हाय છે? કે પરપ્રાગ નિવર્તિત હેય છે કે તે બંને પ્રયોગ નિર્વતિત હોય છે? શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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